मैत्रेय उवाच
इत्थं विपर्ययमति: पापीयानुत्पथं गत: ।
अनुनीयमानस्तद्याच्ञां न चक्रे भ्रष्टमङ्गल: ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; इत्थम्—इस प्रकार; विपर्यय-मति:—विपरीत बुद्धि वाला; पापीयान्—अत्यन्त पापी; उत्पथम्— सही रास्ते से; गत:—चलकर; अनुनीयमान:—सभी प्रकार से सम्मानित; तत्-याच्ञाम्—मुनियों की याचना; न—नहीं; चक्रे— स्वीकार किया; भ्रष्ट—रहित; मङ्गल:—समस्त पुण्य ।.
अनुवाद
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : इस प्रकार अपने पापमय जीवन के कारण दुर्बोध होने तथा सही राह से विचलित होने के कारण राजा समस्त पुण्य से क्षीण हो गया। उसने ऋषियों की सादर प्रस्तुत प्रार्थनाएँ स्वीकार नहीं कीं, अत: उसकी भर्त्सना की गई।
तात्पर्य
निश्चित ही, असुरों को अधिकारियों की बात पर विश्वास नहीं हो सकता। वास्तव में वे सदैव उनका निरादर करते हैं। वे अपने से धर्म के सिद्धान्त स्वयं गढ़ते हैं और व्यास, नारद और यहाँ तक कि भगवान् कृष्ण जैसे महापुरुषों की अवज्ञा करते हैं। ज्योंही कोई व्यक्ति अधिकारी पुरुष की अवज्ञा करता है, वह पापी बनकर अपना सारा पुण्य खो देता है। राजा इतना घमंडी तथा अहंकारी हो गया कि उसने बड़े-बड़े ऋषियों का अनादर करने का साहस किया जिससे उसका विनाश हो गया।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.