श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  4.14.3 
श्रुत्वा नृपासनगतं वेनमत्युग्रशासनम् ।
निलिल्युर्दस्यव: सद्य: सर्पत्रस्ता इवाखव: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
श्रुत्वा—सुनकर; नृप—राजा का; आसन-गतम्—सिंहासन पर आरूढ़; वेनम्—वेन को; अति—अत्यन्त; उग्र—घोर; शासनम्—दंड देनेवाला; निलिल्यु:—अपने को छिपा लिया; दस्यव:—सभी चोर; सद्य:—तुरन्त; सर्प—साँपों से; त्रस्ता:—डरे हुए; इव—सदृश; आखव:—चूहे ।.
 
अनुवाद
 
 यह पहले से ज्ञात था कि वेन अत्यन्त कठोर तथा क्रूर था, अत: जैसे ही राज्य के चोरों तथा उचक्कों ने सुना कि वह राज-सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है, वे उससे बहुत भयभीत हुए और वे सब उसी तरह छिप गये जिस प्रकार चूहे अपने आपको सर्पों से छिपा लेते हैं।
 
तात्पर्य
 जब सरकार अत्यधिक निर्बल होती है, तो चोर तथा उचक्के बढ़ जाते हैं। इसी प्रकार जब सरकार प्रबल होती है, तो सारे चोर-उचक्के लुप्त हो जाते हैं या छिप जाते हैं। निस्सन्देह, वेन अच्छा राजा न था, किन्तु वह क्रूर तथा कठोर समझा जाता था। इस तरह राज्य चोर-उचक्कों से मुक्त हो गया।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥