श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  4.14.30 
इति तेऽसत्कृतास्तेन द्विजा: पण्डितमानिना ।
भग्नायां भव्ययाच्ञायां तस्मै विदुर चुक्रुधु: ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; ते—समस्त ऋषि; असत्-कृता:—अपमानित होकर; तेन—राजा द्वारा; द्विजा:—ब्राह्मण; पण्डित-मानिना— अपने को अत्यन्त विद्वान मानते हुए; भग्नायाम्—टूटकर; भव्य—शुभ; याच्ञायाम्—प्रार्थना, याचना; तस्मै—उसको; विदुर— हे विदुर; चुक्रुधु:—अत्यन्त रुष्ट हुए ।.
 
अनुवाद
 
 हे विदुर, तुम्हारा कल्याण हो। उस मूर्ख राजा ने अपने को अत्यन्त विद्वान् समझकर ऋषियों तथा मुनियों का अपमान किया। राजा के वचनों से ऋषियों दिल टूट गया और वे उस पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥