न—कभी नहीं; अयम्—यह व्यक्ति; अर्हति—पात्र है; असत्-वृत्त:—अपवित्र कार्यों से पूर्ण; नर-देव—सांसारिक राजा का या देव का; वर-आसनम्—श्रेष्ठ सिंहासन; य:—जो; अधियज्ञ-पतिम्—समस्त यज्ञों का स्वामी; विष्णुम्—भगवान् विष्णु को; विनिन्दति—अपमान करता है; अनपत्रप:—निर्लज्ज ।.
अनुवाद
ऋषियों ने आगे कहा : यह अपवित्र, दम्भी व्यक्ति सिंहासन पर बैठने के लिए सर्वथा अयोग्य है। यह इतना निर्लज्ज है कि इसने भगवान् विष्णु का भी अपमान करने का दुस्साहस किया है।
तात्पर्य
किसी को भगवान् विष्णु अथवा उनके भक्तों के प्रति अपमान या निन्दा को कभी सहन नहीं करना चाहिए। भक्त सामान्यत: भद्र एवं विनम्र होता है और किसी से झगड़ा करने से कतराता है। न ही वह किसी से ईर्ष्या करता है। किन्तु शुद्ध भक्त जब यह देखता है कि भगवान् विष्णु या उनके भक्तों का अपमान हो रहा है, तो वह आगबबूला हो जाता है। यह भक्त का कर्तव्य है यद्यपि भक्त विनम्रता एवं भद्रता बनाये रखता है, किन्तु यह सबसे बड़ा दोष है यदि भगवान् या उनके भक्त के अपमान होने पर वह शान्त रहता है।
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