श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  4.14.33 
को वैनं परिचक्षीत वेनमेकमृतेऽशुभम् ।
प्राप्त ईद‍ृशमैश्वर्यं यदनुग्रहभाजन: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
क:—कौन; वा—निस्सन्देह; एनम्—भगवान्; परिचक्षीत—निन्दा करेगा; वेनम्—राजा वेन को; एकम्—एकाकी; ऋते— सिवाय; अशुभम्—अभागा; प्राप्त:—प्राप्त करके; ईदृशम्—ऐसा; ऐश्वर्यम्—ऐश्वर्य; यत्—जिसका; अनुग्रह—कृपा; भाजन:—पात्र ।.
 
अनुवाद
 
 अभागे राजा वेन को छोडक़र भला ऐसा कौन होगा जो उन भगवान् की निन्दा करेगा, जिनकी कृपा से सभी प्रकार की सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता हो?
 
तात्पर्य
 जब मानव समाज व्यष्टि रूप से या समष्टि रूप से ईश्वर-विहीन हो जाता है और भगवान् की सत्ता की निन्दा करता है, तो समझिये कि उसका विनाश अवश्यम्भावी है। भगवान् की कृपा को न समझने से ऐसी सभ्यता में सभी प्रकार का अशुभ होता रहता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥