श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  4.14.4 
स आरूढनृपस्थान उन्नद्धोऽष्टविभूतिभि: ।
अवमेने महाभागान् स्तब्ध: सम्भावित: स्वत: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
स:—राजा वेन; आरूढ—स्थित; नृप-स्थान:—राजा के आसन पर; उन्नद्ध:—अत्यन्त घमंडी; अष्ट—आठ; विभूतिभि:— ऐश्वर्यों से; अवमेने—अपमान करने लगा; महा-भागान्—महापुरुषों को; स्तब्ध:—अदूरदर्शी; सम्भावित:—महान् समझते हुए; स्वत:—अपने आपको ।.
 
अनुवाद
 
 जब राजा सिंहासन पर बैठा तो वह आठों ऐश्वर्यों से युक्त होकर सर्वशक्तिमान बन गया। फलत: वह अत्यन्त घंमडी हो गया। झूठी प्रतिष्ठा के कारण वह अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगा और इस प्रकार से वह महापुरुषों का अपमान करने लगा।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में अष्ट-विभूतिभि: शब्द महत्त्वपूर्ण है, जिसका अर्थ है, “आठ ऐश्वर्यों से।” राजा को आठ ऐश्वर्यों से युक्त होना चाहिए। सामान्यत: योगाभ्यास के बल से राजा इन आठ ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेते थे। ऐसे राजा राजर्षि कहलाते थे। योगाभ्यास के बल से राजर्षि छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा बन सकता था और मनवांछित वस्तु प्राप्त कर सकता था। वह राज्य उत्पन्न कर सकता था, सबों को वश में करके उन पर शासन कर सकता था। ये ही राजा के कतिपय ऐश्वर्य होते थे। किन्तु राजा वेन को योग का अभ्यास नहीं था, तो भी उसे अपने राजपद का घमंड हो गया। विचारवान न होने के कारण वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने और महापुरुषों का अपमान करने लगा।
 
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