श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  4.14.5 
एवं मदान्ध उत्सिक्तो निरङ्कुश इव द्विप: ।
पर्यटन् रथमास्थाय कम्पयन्निव रोदसी ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; मद-अन्ध:—अधिकार के कारण अन्धा हुआ; उत्सिक्त:—घमंडी; निरङ्कुश:—उद्दंड; इव—सदृश; द्विप:— हाथी; पर्यटन्—घूमता हुआ; रथम्—रथ पर; आस्थाय—चढक़र; कम्पयन्—हिलाता हुआ; इव—निरसन्देह; रोदसी—आकाश तथा पृथ्वी ।.
 
अनुवाद
 
 राजा वेन अपने ऐश्वर्य के मद से अन्धा होकर रथ पर आसीन होकर निरंकुश हाथी के समान सारे राज्य में घूमने लगा। जहाँ-जहाँ वह जाता, आकाश तथा पृथ्वी दोनों हिलने लगते।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥