श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  4.14.7 
वेनस्यावेक्ष्य मुनयो दुर्वृत्तस्य विचेष्टितम् ।
विमृश्य लोकव्यसनं कृपयोचु: स्म सत्रिण: ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
वेनस्य—वेन का; आवेक्ष्य—देखकर; मुनय:—सभी मुनिगण; दुर्वृत्तस्य—धूर्त के; विचेष्टितम्—कार्यकलाप; विमृश्य—विचार करके; लोक-व्यसनम्—सामान्य लोगों के लिए संकट; कृपया—दयावश; ऊचु:—कहा; स्म—भूतकाल में; सत्रिण:—यज्ञों के कर्ता ।.
 
अनुवाद
 
 अत: सभी ऋषिगण एकत्र हुए और वेन के अत्याचारों को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के मनुष्यों पर महान् संकट तथा प्रलय आनेवाला है। अत: वे दयावश परस्पर बातें करने लगे, क्योंकि वे स्वयं ही यज्ञों को सम्पन्न करनेवाले थे।
 
तात्पर्य
 राजा वेन सिंहासन पर बैठने से पहले तक सभी ऋषिगण समाज का कल्याण देखने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहते थे। जब उन्होंने देखा कि राजा वेन अत्यन्त गैरजिम्मेदार, क्रूर तथा अत्याचारी है, तो वे फिर से जनता के कल्याण के विषय में विचार करने लगे। यह समझ लेना चाहिए कि साधु, सज्जन तथा भक्त कभी भी जनकल्याण से विरत नहीं रहते। सामान्य कर्मीजन इन्द्रियतृप्ति के लिए धन संग्रह करते होते हैं और ज्ञानी मुक्ति की इच्छा से एकान्त भाव से चिन्तन करते रहते हैं, किन्तु वास्तविक भक्त तथा साधु पुरुष सदैव चिन्तित रहते हैं कि लोगों को किस प्रकार भौतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सुखी बनाया जाए। अत: सभी ऋषि एकत्र होकर राजा वेन द्वारा उत्पन्न भयावह वातावरण से उबरने के लिए मंत्रणा करने लगे।
 
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