श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  4.14.9 
अराजकभयादेष कृतो राजातदर्हण: ।
ततोऽप्यासीद्भयं त्वद्य कथं स्यात्स्वस्ति देहिनाम् ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
अराजक—बिना राजा के होने से; भयात्—भयवश; एष:—यह वेन; कृत:—बनाया था; राजा—राजा; अ-तत्-अर्हण:— अयोग्य होने पर भी; तत:—उससे; अपि—भी; आसीत्—था; भयम्—संकट; तु—तब; अद्य—अब; कथम्—कैसे; स्यात्— क्या हो सकता है; स्वस्ति—सुख; देहिनाम्—प्राणियों का ।.
 
अनुवाद
 
 राज्य को अराजकता से बचाने के लिए सोच-विचार कर ऋषियों ने राजनीतिक संकट के कारण वेन को, अयोग्य होते हुए भी राजा बनाया था। किन्तु हाय! अब तो जनता राजा द्वारा ही अशान्त बनाई जा रही है। ऐसी अवस्था में भला लोग किस प्रकार सुखी रह सकते हैं?
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता (१८.५) में कहा गया है कि विरक्त अवस्था में भी मनुष्य को यज्ञ, दान, तथा तप का परित्याग नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचारियों को यज्ञ करना चाहिए, गृहस्थों को दान देना चाहिए और विरक्तों (वानप्रस्थ तथा संन्यासी) को तपस्या करनी चाहिए। ये ऐसी विधियाँ हैं जिनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति आत्म-पद को प्राप्त हो सकता है। जब ऋषियों-मुनियों ने देखा कि राजा वेन ने ये सारे कार्य बन्द करा दिये हैं, तो उन्हें जनता की उन्नति की चिन्ता हुई। साधु पुरुष ईशचेतना या कृष्णचेतना का उपदेश देते हैं, क्योंकि वे जन-सामान्य को पाशविक जीवन के संकटों से बचाना चाहते हैं। यह देखने के लिए कि नागरिक सचमुच अपने धार्मिक कृत्य करते हैं, एक उत्तम सरकार होनी चाहिए तथा चोरों-उचक्कों पर रोक लगानी चाहिए। जब ऐसा होगा तो लोग शान्तिपूर्वक आध्यात्मिक चेतना में अग्रसर होंगे और उनके जीवन सफल हो जाएँगे।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥