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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 15: राजा पृथु की उत्पत्ति और राज्याभिषेक  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  4.15.18 
अग्निराजगवं चापं सूर्यो रश्मिमयानिषून् ।
भू: पादुके योगमय्यौ द्यौ: पुष्पावलिमन्वहम् ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
अग्नि:—अग्निदेव ने; आज-गवम्—बकरे तथा गायों के सींगों से बने; चापम्—धनुष; सूर्य:—सूर्यदेव ने; रश्मि-मयान्—सूर्य की किरणों के समान चमकता; इषून्—तीर; भू:—भूमि ने; पादुके—खड़ाऊँ; योग-मय्यौ—योगशक्ति से युक्त; द्यौ:— आकाश के देवताओं ने; पुष्प—फूलों की; आवलिम्—भेंट; अनु-अहम्—दिन-प्रति-दिन ।.
 
अनुवाद
 
 अग्निदेव ने बकरों तथा गौंओं के सीगों से निर्मित धनुष, सूर्यदेव ने सूर्यप्रकाश के समान तेजवान बाण, भूर्लोक के प्रमुख देव ने योगशक्ति-सम्पन्न चरण-पादुकाएँ तथा आकाश के देवताओं ने पुन: पुन: पुष्पों की भेंटें प्रदान की।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में बताया गया है कि राजा की पादुकाएँ योग-शक्ति से युक्त थीं (पादुके योगमय्यौ)। इस प्रकार पादुकाएँ पहनते ही राजा जहाँ चाहे जा सकता था। योगी लोग किसी भी समय अपनी इच्छानुसार एक स्थान से दूसरे को चले जा सकते हैं। ऐसी ही शक्ति राजा पृथु की पादुकाओं में थी।
 
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