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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 15: राजा पृथु की उत्पत्ति और राज्याभिषेक  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  4.15.23 
तस्मात्परोक्षेऽस्मदुपश्रुतान्यलं
करिष्यथ स्तोत्रमपीच्यवाच: ।
सत्युत्तमश्लोकगुणानुवादे
जुगुप्सितं न स्तवयन्ति सभ्या: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मात्—अत:; परोक्षे—निकट भविष्य में; अस्मत्—मेरा; उपश्रुतानि—कहे गये गुणों के विषय में; अलम्—पर्याप्त; करिष्यथ—तुम कर सकोगे; स्तोत्रम्—स्तुतियाँ; अपीच्य-वाच:—हे भद्र गायक; सति—समुचित कार्य होने से; उत्तम- श्लोक—श्रीभगवान् का; गुण—गुणों की; अनुवादे—विवेचना; जुगुप्सितम्—घृणित व्यक्ति को; —कभी नहीं; स्तवयन्ति— स्तुति प्रदान करें; सभ्या:—भद्र लोग ।.
 
अनुवाद
 
 हे भद्र गायको, कालान्तर में वे गुण, जिनका तुम लोगों ने वर्णन किया है, जब वास्तव में प्रकट हो जाँय तब मेरी स्तुति करना। जो भद्रलोग भगवान् की प्रार्थना करते हैं, वे ऐसे गुणों को किसी ऐसे मनुष्य में थोपा नहीं करते, जिनमें सचमुच वे न पाए जाते हों।
 
तात्पर्य
 भगवान् के भद्र भक्तों को यह पता रहता है कि कौन ईश्वर है और कौन नहीं। किन्तु अभक्त निर्विशेषवादी, जिन्हें ईश्वर का कोई ज्ञान नहीं है और जो कभी भी ईश्वर की प्रार्थना नहीं किया करते, सदैव मनुष्य को ईश्वर मानने तथा उसकी प्रार्थनाएँ करने में रुचि रखते हैं। एक भक्त तथा असुर में यही अन्तर है। असुर अपने देवताओं को स्वयं गढ़ लेते हैं या स्वयं को ईश्वर मान लेते हैं और रावण तथा हिरण्यकशिपु के पदचिह्नों का अनुसरण करते हैं। यद्यपि पृथु महाराज वास्तव में भगवान् के अवतार थे, किन्तु उन्होंने उन प्रशंसात्मक स्तुतियों को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उनमें परम पुरुष के गुणों का अभी उदय नहीं हुआ था। वे इस पर बल देना चाहते थे कि यदि किसी में वास्तविक गुण न हों तो उन्हें अपने अनुयायियों या भक्तों को यशोगान नहीं करने देना चाहिए, भले ही ये गुण भविष्य में प्रकट होने वाले क्यों न हों। यदि ऐसा व्यक्ति, जो महापुरुषों के वास्तविक गुणों के न होते हुए भी अपने अनुयायियों से इस आशा में अपनी स्तुति कराता है, कि ऐसे गुण भविष्य में उसमें प्रकट हो जाएंगे, वास्तव में स्तुति नहीं, वरन् अपमान कराता है।
 
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