हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 15: राजा पृथु की उत्पत्ति और राज्याभिषेक  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  4.15.25 
प्रभवो ह्यात्मन: स्तोत्रं जुगुप्सन्त्यपि विश्रुता: ।
ह्रीमन्त: परमोदारा: पौरुषं वा विगर्हितम् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
प्रभव:—अत्यन्त पराक्रमी पुरुष; हि—निश्चय ही; आत्मन:—अपनी; स्तोत्रम्—प्रशंसा; जुगुप्सन्ति—नहीं चाहते; अपि—यद्यपि; विश्रुता:—अत्यन्त प्रसिद्ध; ह्री-मन्त:—सौम्य; परम-उदारा:—अत्यन्त उदार पुरुष; पौरुषम्—शक्तिशाली कार्य; वा—भी; विगर्हितम्—निन्दनीय ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार कोई सम्मानित तथा उदार व्यक्ति अपने निन्दनीय कार्यों के विषय में सुनना नहीं चाहता, उसी प्रकार अत्यन्त प्रसिद्ध तथा पराक्रमी पुरुष अपनी प्रशंसा सुनना पसन्द नहीं करता।
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥