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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 15: राजा पृथु की उत्पत्ति और राज्याभिषेक  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  4.15.26 
वयं त्वविदिता लोके सूताद्यापि वरीमभि: ।
कर्मभि: कथमात्मानं गापयिष्याम बालवत् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
वयम्—हम; तु—तब; अविदिता:—अप्रसिद्ध; लोके—संसार में; सूत-आद्य—हे सूत इत्यादि जनो; अपि—इस समय तुरन्त; वरीमभि:—महान्, प्रशंसनीय; कर्मभि:—कर्मों से; कथम्—कैसे; आत्मानम्—अपने आप; गापयिष्याम—स्तुति करने के लिए लगा लूँ; बालवत्—बच्चों के समान ।.
 
अनुवाद
 
 राजा पृथु ने आगे कहा : हे सूत आदि भक्तो, इस समय मैं अपने व्यक्तिगत गुणों के लिए अधिक प्रसिद्ध नहीं हूँ क्योंकि अभी तो मैंने ऐसा कुछ किया नहीं जिसकी तुम लोग प्रशंसा कर सको। अत: मैं बच्चों की तरह तुम लोगों से अपने कार्यों का गुणगान कैसे कराऊँ?
 
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कंध के अन्तर्गत “राजा पृथु की उत्पत्ति और राज्या-भिषेक” नामक पन्द्रहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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