श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.2.11 
एष मे शिष्यतां प्राप्तो यन्मे दुहितुरग्रहीत् ।
पाणिं विप्राग्निमुखत: सावित्र्या इव साधुवत् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
एष:—यह (शिव); मे—मेरी; शिष्यताम्—अधीनता; प्राप्त:—स्वीकार करके; यत्—क्योंकि; मे दुहितु:—मेरी पुत्री का; अग्रहीत्—ग्रहण किया; पाणिम्—हाथ; विप्र-अग्नि—ब्राह्मणों तथा अग्नि के; मुखत:—समक्ष; सावित्र्या:—गायत्री; इव— सदृश; साधुवत्—साधु (ईमानदार) पुरुष के समान ।.
 
अनुवाद
 
 इसने अग्नि तथा ब्राह्मणों के समक्ष मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करके पहले ही मेरी अधीनता स्वीकार कर ली है। इसने गायत्री के समान मेरी पुत्री के साथ विवाह किया है और अपने को सत्यपुरुष बताया था।
 
तात्पर्य
 दक्ष का यह कथन, कि शिव ने सत्पुरुष का ढोंग रचा, यह बताता है कि शिव ईमानदार न थे क्योंकि वे दक्ष के दामाद बनकर भी, उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित नहीं कर रहे थे।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥