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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  4.2.16 
तस्मा उन्मादनाथाय नष्टशौचाय दुर्हृदे ।
दत्ता बत मया साध्वी चोदिते परमेष्ठिना ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मै—उस; उन्माद-नाथाय—प्रेतों के स्वामी को; नष्ट-शौचाय—समस्त स्वच्छता से रहित व्यक्ति को; दुर्हृदे—विकारों से पूर्ण हृदय; दत्ता—प्रदान की गयी थी; बत—अहो; मया—मेरे द्वारा; साध्वी—सती; चोदिते—विनती किये जाने पर; परमेष्ठिना— परम गुरु (ब्रह्मा) द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्माजी के अनुरोध पर मैंने अपनी साध्वी पुत्री उसे प्रदान की थी, यद्यपि वह समस्त प्रकार की स्वच्छता से रहित है और उसका हृदय विकारों से पूरित है।
 
तात्पर्य
 माता पिता का धर्म है कि वे अपनी पुत्री को ऐसे परिवार में ब्याहें जो स्वच्छता, सदाचरण, सम्पत्ति, सामाजिक स्थिति इत्यादि में उनकी वंश-परम्परा के अनुकूल हो। दक्ष को पछतावा था कि उसने अपने पिता ब्रह्मा के कहने पर अपनी पुत्री ऐसे व्यक्ति को प्रदान की थी, जो उसकी गणना के अनुसार घिनौना था। वह इतना क्रुद्ध था कि वह इतना तक स्वीकार नहीं कर रहा था कि उसके पिता की ओर से ही विवाह के लिए अनुरोध किया गया था। उल्टे उसने ब्रह्मा को परमेष्ठी अर्थात् जगद्गुरु कहा, क्योंकि क्रोध के मारे वह ब्रह्मा को अपना पिता नहीं स्वीकार कर रहा था। दूसरे शब्दों में, उसने ब्रह्मा पर अल्पज्ञानी होने का आरोप लगाया, क्योंकि उन्होंने उसकी सुन्दर कन्या को एक अयोग्य व्यक्ति को प्रदान करने की सलाह दी थी। क्रोध में मनुष्य सब कुछ भूल जाता है, अत: दक्ष ने क्रोधवश न केवल शिव पर दोषारोपण किया, वरन् अपने पिता ब्रह्माजी की भी आलोचना की, क्योंकि उन्हीं के अविवेक पूर्ण उपदेश पर ही उसने शिवजी को अपनी कन्या ब्याही थी।
 
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