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श्लोक 4.2.17  |
मैत्रेय उवाच
विनिन्द्यैवं स गिरिशमप्रतीपमवस्थितम् ।
दक्षोऽथाप उपस्पृश्य क्रुद्ध: शप्तुं प्रचक्रमे ॥ १७ ॥ |
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शब्दार्थ |
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; विनिन्द्य—गाली देकर; एवम्—इस प्रकार; स:—वह (दक्ष); गिरिशम्—शिव; अप्रतीपम्— शत्रुतारहित; अवस्थितम्—स्थित रहकर; दक्ष:—दक्ष; अथ—अब; अप:—जल; उपस्पृश्य—हाथ तथा मुँह धोकर; क्रुद्ध:— क्रुद्ध, नाराज; शप्तुम्—शाप देना; प्रचक्रमे—प्रारम्भ किया ।. |
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अनुवाद |
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मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : इस प्रकार शिव को अपने विपक्ष में स्थित देखकर दक्ष ने जल से आचमन किया और निम्नलिखित शब्दों से शाप देना प्रारम्भ किया। |
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