श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  4.2.18 
अयं तु देवयजन इन्द्रोपेन्द्रादिभिर्भव: ।
सह भागं न लभतां देवैर्देवगणाधम: ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
अयम्—यह; तु—लेकिन; देव-यजने—देवताओं के यज्ञ में; इन्द्र-उपेन्द्र-आदिभि:—इन्द्र, उपेन्द्र तथा अन्यों सहित; भव:— शिव; सह—के साथ; भागम्—एक अंश; न—नहीं; लभताम्—प्राप्त करना चाहिए; देवै:—देवताओं से; देव-गण-अधम:— समस्त देवताओं में सबसे निम्न ।.
 
अनुवाद
 
 देवता तो यज्ञ की आहुति में भागीदार हो सकते हैं, किन्तु समस्त देवों में अधम शिव को यज्ञ-भाग नहीं मिलना चाहिए।
 
तात्पर्य
 इस शाप के कारण शिव वैदिक यज्ञों की आहुति में भाग लेने से वंचित ही रहे। इस प्रसंग में श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती की टीका है कि दक्ष के इसी शाप से भगवान् शिव अन्य भौतिकतावादी देवताओं का साथ देने की बला से बचे रहे। शिवजी श्रीभगवान् के सबसे बड़े भक्त हैं और उन्हें यह शोभा नहीं देता कि वे देवताओं के समान भौतिकतावादी लोगों के साथ उठें-बैठें। इस प्रकार दक्ष का शाप एक प्रकार से वरदान सिद्ध हुआ क्योंकि इस के कारण शिव को अन्य देवताओं के साथ जो अत्यन्त भौतिकतावादी थे, खाना अथवा उठना बैठना नहीं पड़ेगा। हमारे समक्ष गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज ने व्यावहारिक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। वे शौचालय के पास बैठकर हरे कृष्ण का जाप करते थे। चूँकि अनेक लोग आकर उनके हरे कृष्ण जप में बाधा डालते थे, इसलिए उनकी संगति से बचने के लिए ही वे शौचालय के पास बैठे रहते, क्योंकि तब भौतिकतावादी लोग गंदगी तथा दुर्गंध के कारण निकट जाना पसन्द नहीं करेंगे। किन्तु वे इतने महान् पुरुष थे कि ॐ विष्णुपाद श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज के गुरु बने। निष्कर्ष यह निकला कि शिव जानबूझकर ऐसा आचरण करते थे जिससे भौतिकतावादी लोग उनकी भक्ति में बाधक न बनें।
 
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