जिस कपटपूर्ण धार्मिक गृहस्थ-जीवन में कोई मनुष्य भौतिक सुख के प्रति आसक्त रहता है और साथ ही वेदों की व्यर्थ व्याख्या के प्रति आकृष्ट होता है, इसमें उसकी सारी बुद्धि हर ली जाती है और वह पूर्ण रूप से सकाम कर्म में लिप्त हो जाता है।
तात्पर्य
जो लोग अपने शारीरिक अस्तित्व को ही सब कुछ मानते हैं, वे वेदवर्णित सकाम कर्म में आसक्त रहते हैं। उदाहरणार्थ, वेदों में उल्लेख है कि जो चातुर्मास्य व्रत का पालन करता है, उसे स्वर्गलोक में शाश्वत सुख उपलब्ध होगा। भगवद्गीता में कहा गया है कि वेदों की यह अलंकृत भाषा अधिकतर उन पुरुषों को आकृष्ट करती है, जो अपने को शरीर-रूप मानते हैं। ऐसे लोगों के लिए स्वर्गिक सुख ही सब सुख है; उन्हें यह पता नहीं है कि इससे भी परे आत्म-जगत या ईश्वरीय धाम है और वहाँ जाया जा सकता है। इस प्रकार वे दिव्य ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। ऐसे लोग गृहस्थ-जीवन के विधि-विधानों को सम्पन्न करने में अत्यन्त सतर्क रहते हैं जिससे अगले जीवन में वे चन्द्र लोक या अन्य स्वर्ग लोकों में जा सकें। यहाँ पर बताया गया है कि ऐसे लोग ग्राम्य सुख अर्थात् ‘भौतिक सुख’ में लिप्त रहते हैं। उन्हें शाश्वत, आनन्दमय आध्यात्मिक जीवन का कोई पता नहीं रहता।
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