श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  4.2.27 
तस्यैवं वदत: शापं श्रुत्वा द्विजकुलाय वै ।
भृगु: प्रत्यसृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
तस्य—उसका (नन्दीश्वर का); एवम्—इस प्रकार; वदत:—शब्द; शापम्—शाप; श्रुत्वा—सुनकर; द्विज-कुलाय—ब्राह्मणों को; वै—निस्सन्देह; भृगु:—भृगु ने; प्रत्यसृजत्—दिया; शापम्—शाप; ब्रह्म-दण्डम्—ब्राह्मण द्वारा दिया गया दण्ड; दुरत्ययम्—दुर्लंघ्य, दुस्तर ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार जब नन्दीश्वर ने समस्त कुलीन ब्राह्मणों को शाप दे दिया तो प्रतिक्रियास्वरूप भृगमुनि ने शिव के अनुयायियों की भर्त्सना की और उन्हें घोर ब्रह्म-शाप दे दिया।
 
तात्पर्य
 दुरत्यत्या शब्द का व्यवहार ब्रह्मदण्ड अर्थात् ब्राह्मण द्वारा दिये जाने वाले शाप के प्रसंग में हुआ है। ब्राह्मण द्वारा दिया गया शाप अत्यन्त घोर (प्रबल) होता है, इसीलिए उसे दुरत्यया अर्थात् दुष्कर कहा गया है। जैसाकि भगवान् ने भगवद्गीता में कहा है कि प्रकृति के कठोर नियम दुर्लंघ्य हैं, इसी प्रकार यदि कोई ब्राह्मण शाप देता है, तो वह भी दुर्लंघ्य है। किन्तु भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि भौतिक लोक के शाप या वरदान अन्तत: भौतिक सृष्टियाँ ही हैं। चैतन्य चरितामृत से इसकी पुष्टि होती है कि जिसे भौतिक जगत में वरदान या शाप माना जाता है वे दोनों वस्तुत: एक ही धरातल पर हैं, क्योंकि वे भौतिक हैं। अत: इस भौतिक कल्मष से छुटकारा पाने के लिए भगवान् की शरण ग्रहण करनी चाहिए जैसाकि भगवद्गीता (७.१४) में कहा गया है—मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है कि शाप तथा वरदान से ऊपर उठा जाये और भगवान् कृष्ण की शरण ग्रहण की जाये तथा दिव्य स्थिति में रहा जाये। जिन लोगों ने श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है वे सदैव शान्तिपूर्वक रहते हैं। न तो उन्हें कोई शाप देता है और न वे किसी को शाप देते हैं। यही दिव्य स्थिति है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥