भवव्रतधरा ये च ये च तान्समनुव्रता: ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिन: ॥ २८ ॥
शब्दार्थ
भव-व्रत-धरा:—शिव के अनुयायी; ये—जो; च—तथा; ये—जो; च—तथा; तान्—ऐसे नियम; समनुव्रता:—पालन करते हुए; पाषण्डिन:—नास्तिक; ते—वे; भवन्तु—हों; सत्-शास्त्र-परिपन्थिन:—दिव्य शास्त्रीय आदेशों से विपथ ।.
अनुवाद
जो शिव को प्रसन्न करने का व्रत धारण करता है अथवा जो ऐसे नियमों का पालन करता है, वह निश्चित रूप से नास्तिक होगा और दिव्य शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाला बनेगा।
तात्पर्य
कभी-कभी यह देखा जाता है कि शिवजी के भक्त शिव के आचरणों का अनुकरण करते हैं। उदाहरणार्थ, शिवजी ने विषपान किया था, अत: उनके कुछ भक्त उनके अनुकरण पर गाँजा जैसे मादक पदार्थ का सेवन करते हैं। इसीलिए यहाँ यह शाप दिया गया है कि जो ऐसा करता है, वह पतित बने और वैदिक नियमों के विरुद्ध आचरण करने वाला हो। यह कहा गया है कि शिवजी के ऐसे भक्त सच्छास्त्र-परिपन्थिन: अर्थात् “शास्त्रों के निष्कर्षों के विरुद्ध चलने वाले” होंगे। इसकी पुष्टि पद्म पुराण में भी हुई है। श्रीभगवान् द्वारा शिव को आदेश दिया गया कि वे विशेष उद्देश्य से निर्विशेष वाद अथवा मायावाद दर्शन का उपदेश दें, जिस प्रकार भगवान् बुद्ध ने शास्त्रों में उल्लिखित ऐसे ही विशिष्ट उद्देश्य से शून्यवाद-दर्शन का उपदेश दिया था।
कभी-कभी वेदविरुद्ध दार्शनिक सिद्धान्त का उपदेश आवश्यक हो जाता है। शिवपुराण में उल्लेख है कि शिवजी ने पार्वती से कहा कि वे कलियुग में ब्राह्मण शरीर में मायावाद दर्शन का उपदेश देंगे। इस प्रकार सामान्य रूप से यह पाया जाता कि शिवजी के उपासक मायावादी होते हैं। भगवान् शिव ने स्वयं कहा है—मायावादम् असच्छास्त्रम्। जैसाकि बताया जा चुका है असत्-शास्त्र का अर्थ मायावाद निर्विशेष का सिद्धान्त है। भृगु मुनि ने शाप दिया कि शिव के आराधक इस मायावाद असत् शास्त्र के अनुयायी हों, जो यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि भगवान् निर्गुण हैं। इसके साथ ही साथ शिव के उपासकों का एक सम्प्रदाय राक्षसी जीवन व्यतीत करता है। श्रीमद्भागवत तथा नारद पञ्चरात्र प्रामाणिक शास्त्र हैं, जो सत्-शास्त्र की कोटि में आते हैं जिनसे ईश्वर-साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त होता है। असत्-शास्त्र इससे सर्वथा विपरीत हैं।
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