श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  4.2.29 
नष्टशौचा मूढधियो जटाभस्मास्थिधारिण: ।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
नष्ट-शौचा:—शुचिता (पवित्रता) का परित्याग करके; मूढ-धिय:—मूर्ख; जटा-भस्म-अस्थि-धारिण:—जटा, राख तथा हड्डियाँ धारण किये; विशन्तु—प्रवेश करें; शिव-दीक्षायाम्—शिव पूजा की दीक्षा में; यत्र—जहाँ; दैवम्—ईश्वरी हैं; सुर- आसवम्—मदिरा तथा आसव ।.
 
अनुवाद
 
 जो शिव की पूजा का व्रत लेते हैं, वे इतने मूर्ख होते हैं कि वे उनका अनुकरण करके अपने शरीर पर लम्बी जटाएँ धारण करते हैं और शिव की उपासना की दीक्षा ले लेने के बाद वे मदिरा, मांस तथा अन्य ऐसी ही वस्तुएँ खाना-पीना पसंद करते हैं।
 
तात्पर्य
 अनियमित जीवन बिताने वाले मूर्ख प्राणी मदिरा तथा मांस का सेवन करते हैं, लम्बी लम्बी जटाएँ रखते हैं, नित्य स्नान नहीं करते और गाँजा पीते हैं। ऐसे आचरण से मनुष्य दिव्य ज्ञान से विहीन हो जाता है। शिवमंत्र की दीक्षा-ग्रहण में मुद्रिकाष्टक होता है, जिसमें कभी-कभी यह संस्तुति की जाती है कि मनुष्य स्री योनि पर अपना आसन लगाए तभी उसे निर्वाण प्राप्त हो सकता है। ऐसी उपासना में मदिरा अथवा ताड़ी की आवश्यकता पड़ती है। शिव-आगम अर्थात् शिव-आराधना विभि सम्बन्धी ग्रन्थ के अनुसार इसकी भेंट भी चढ़ाई जाती है।
 
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