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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  4.2.32 
तद्ब्रह्म परमं शुद्धं सतां वर्त्म सनातनम् ।
विगर्ह्य यात पाषण्डं दैवं वो यत्र भूतराट् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—वह; ब्रह्म—वेद; परमम्—परम; शुद्धम्—शुद्ध; सताम्—साधु पुरुषों का; वर्त्म—पथ; सनातनम्—शाश्वत; विगर्ह्य— निन्दा करके; यात—जाओ; पाषण्डम्—नास्तिकता को; दैवम्—देव; व:—तुम सबका; यत्र—जहाँ; भूत-राट्—भूतों के स्वामी ।.
 
अनुवाद
 
 ऐसे वेदों के नियमों की निन्दा करके, जो सत्पुरुषों के शुद्ध एवं परम पथ-रूप हैं, अरे भूतपति शिव के अनुयायियों तुम, निस्सन्देह नास्तिकता के स्तर तक जाओगे।
 
तात्पर्य
 शिवजी को यहाँ पर भूतराट् कहा गया है। प्रेत तथा तमोगुण से युक्त लोग भूत कहलाते हैं, अत: भूतराट् का अर्थ हुआ ऐसे प्राणियों का सरदार जो प्रकृति के निम्नतम गुणों से युक्त है। भूत का दूसरा अर्थ है कोई भी जन्मा जीव, अत: इस भाव में शिव को इस भौतिक जगत का पिता माना जा सकता है। किन्तु यहाँ पर भृगु मुनि का अभिप्राय निकृष्ट प्राणियों के सरदार से है। निकृष्ट वर्ग के प्राणियों की विशेषताओं का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है—वे नहाते नहीं, बड़ी-बड़ी जटाएँ रखते हैं और मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं। भूतराट् के अनुयायियों द्वारा ग्रहण किये गये पथ की तुलना में वैदिक प्रणाली निश्चित रूप से सर्व-श्रेष्ठ है क्योंकि इससे लोगों को मानवीय सभ्यता के चरम लक्ष्य, आध्यात्मिक जीवन, की प्राप्ति होती है। यदि कोई वैदिक नियमों को नकारता है या उनकी निन्दा करता है, तो वह नास्तिकता के निम्न स्तर तक गिर जाता है।
 
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