मैत्रेय उवाच
तस्यैवं वदत: शापं भृगो: स भगवान् भव: ।
निश्चक्राम तत: किञ्चिद्विमना इव सानुग: ॥ ३३ ॥
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; तस्य—उसका; एवम्—इस प्रकार; वदत:—कहते हुए; शापम्—शाप; भृगो:—भृगु का; स:— वह; भगवान्—सर्व ऐश्वर्यों का स्वामी; भव:—शिव; निश्चक्राम—चला गया; तत:—वहाँ से; किञ्चित्—कुछ-कुछ; विमना:—खिन्न; इव—सदृश; स-अनुग:—अपने शिष्यों सहित ।.
अनुवाद
मैत्रेय मुनि ने कहा : जब शिवजी के अनुयायियों तथा दक्ष एवं भृगु के पक्षधरों के बीच शाप-प्रतिशाप चल रहा था, तो शिवजी अत्यन्त खिन्न हो उठे और बिना कुछ कहे अपने शिष्यों सहित यज्ञस्थल छोडक़र चले गये।
तात्पर्य
यहाँ पर शिवजी के सर्वोत्कृष्ट चरित्र का वर्णन हुआ है। दक्ष तथा शिव के पक्षधरों के मध्य शाप-प्रतिशाप के बावजूद सर्वोच्च वैष्णव होने के कारण वे इतने गम्भीर बने रहे कि वे एक शब्द भी नहीं बोले। वैष्णव सदा सहिष्णु होता है और शिव तो सर्वोच्च वैष्णव माने जाते हैं, अत: यहाँ पर जिस प्रकार शिवजी का चरित्र-चित्रण किया गया है, वह अत्युत्तम है। वे इसीलिए खिन्न थे क्योंकि वे जानते थे कि उनके अनुयायी तथा दक्ष के लोग वृथा ही एक दूसरे को शाप दे रहे हैं। उनकी दृष्टि में कोई ऊँचा या नीचा न था क्योंकि वे वैष्णव थे। भगवद्गीता में (५.१८) कहा गया है— पंडिता:समदर्शिन:—अर्थात् जो पूर्णरूपेण पंडित होता है, वह सबों को आध्यात्मिक स्तर से देखता है, उसे कोई छोटा या बड़ा नहीं दिखता। अत: शिवजी के पास एकमात्र यहीं विकल्प रह गया था कि अपने शिष्य नन्दीश्वर तथा भृगु मुनि को परस्पर शाप देने से रोकने के लिए उस स्थान को ही छोड़ कर चले जाँए।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.