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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 2: दक्ष द्वारा शिवजी को शाप  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  4.2.34 
तेऽपि विश्वसृज: सत्रं सहस्रपरिवत्सरान् ।
संविधाय महेष्वास यत्रेज्य ऋषभो हरि: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
ते—वे; अपि—भी; विश्व-सृज:—ब्रह्माण्ड के जनक; सत्रम्—यज्ञ; सहस्र—एक हजार; परिवत्सरान्—वर्ष; संविधाय—सम्पन्न करते हुए; महेष्वास—हे विदुर; यत्र—जिसमें; इज्य:—पूजनीय, उपास्य; ऋषभ:—समस्त देवताओं के प्रमुख देव; हरि:—हरि ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार विश्व के सभी जनकों (प्रजापतियों) ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया क्योंकि भगवान् हरि की पूजा की सर्वोत्तम विधि यज्ञ ही है।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि विश्व के धुरंधर पुरुष अर्थात् समस्त प्रजा के जनक, प्रजापति यज्ञ द्वारा भगवान् को प्रसन्न करने में रुचि रखते हैं। भगवान् भी भगवद्गीता (५.२९) में कहते हैं—भोक्तारं यज्ञतपसाम्। मनुष्य सिद्धि के लिए यज्ञ तथा तप करने में लगा रह सकता है, किन्तु इन सबका प्रयोजन परमेश्वर को प्रसन्न रखना है। यदि कोई इन्हें आत्मतुष्टि के लिए करता है, तो वह पाखंड अथवा नास्तिकता से ग्रस्त है; किन्तु यदि इन्हें परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किया जाता है, तो वैदिक नियमों का पालन होता है। वहाँ पर एकत्र सभी मुनियों ने एक हजार वर्षों तक यज्ञ किया।
 
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