आप्लुत्य—स्नान करके; अवभृथम्—यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात् किया गया स्नान; यत्र—जहाँ; गङ्गा—गंगा नदी; यमुनया— यमुना नदी से; अन्विता—मिली हुई; विरजेन—बिना किसी छूत से; आत्मना—मन से; सर्वे—सभी; स्वम् स्वम्—अपने-अपने; धाम—निवास स्थान; ययु:—चले गये; तत:—वहाँ से ।.
अनुवाद
हे धनुषबाणधारी विदुर, सभी यज्ञकर्ता देवताओं ने यज्ञ समाप्ति के पश्चात् गंगा तथा यमुना संगम मेंस्नान किया। ऐसा स्नान अवभृथ स्नान कहलाता है। इस प्रकार से मन से शुद्ध होकर वे अपने-अपने धामों को चले गये।
तात्पर्य
पहले दक्ष और फिर शिव के यज्ञ-स्थल से चले जाने के पश्चात् भी यज्ञ बन्द नहीं हुआ। मुनियों ने परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए अनेक वर्षों तक यज्ञ को चालू रखा। शिव तथा दक्ष के न होने से यज्ञ विध्वंस नहीं हुआ। मुनिजन अपना कार्य चालू रखे रहे। दूसरे शब्दों में, यह माना जा सकता है कि यदि कोई शिव तथा ब्रह्मा जैसे देवताओं की पूजा न भी करे तो भी वह भगवान् को प्रसन्न कर सकता है। भगवद्गीता (७.२०) में भी उसकी पुष्टि हुई है—कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:। जो लोग काम तथा इच्छा से प्रेरित हैं, वे लाभान्वित होने के लिए देवताओं के पास जाते हैं। भगवद्गीता में नास्ति बुद्धि: शब्दों का साभिप्राय प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ है, “वे व्यक्ति जिन्होंने ज्ञान या बुद्धि खो दी है।” केवल ऐसे ही व्यक्ति देवताओं की परवाह करते हैं और उनके पास जाकर लाभ उठाना चाहते हैं। निस्सन्देह, इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें देवताओं का आदर नहीं करना चाहिए; किन्तु उनकी पूजा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ईमानदार व्यक्ति सरकार के प्रति श्रद्धावान् होता है, किन्तु उसे सरकारी कर्मचारियों को घूस देने की आवश्यकता नहीं है। घूस अवैध है। यदि कोई सरकारी कर्मचारी को घूस नहीं देता तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह उसका आदर नहीं करता। इसी प्रकार जो व्यक्ति परमेश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति में अनुरक्त है उसे न तो किसी देवता की पूजा करने की आवश्यकता है, न ही वह किसी प्रकार किसी देवता का अनादर करने की प्रवृत्ति रखता है। भगवद्गीता (९.२३) में अन्यत्र कहा गया है—येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:। भगवान् कहते हैं कि यदि कोई देवताओं को पूजता है, तो वह मेरी भी पूजा करता है, किन्तु वह अविधिपूर्वकम् अर्थात् विधि-विधानों का पालन किये बिना पूजा करता है। विधान यह है कि भगवान् की पूजा की जाये। देवताओं की पूजा अप्रत्यक्षत: भगवान् की पूजा हो सकती है, किन्तु यह विधिपूर्वक नहीं कही जायेगी। परमेश्वर की पूजा करने से सभी देवताओं की स्वत: पूजा हो जाती है, क्योंकि वे परम पूर्ण के अंश हैं। यदि कोई वृक्ष की जड़ को सींचता है, तो वृक्ष के सभी भाग—यथा पत्तियाँ तथा शाखाएँ—स्वत: तुष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि कोई उदर को भोजन प्रदान करता है, तो शरीर के सभी अंग—हाथ, पाँव, अँगुलियाँ—भोजन प्राप्त करते हैं। इस प्रकार श्रीभगवान् की पूजा द्वारा समस्त देवताओं को प्रसन्न रखा जा सकता है, किन्तु सभी देवताओं की पूजा करने से परमेश्वर की पूजा पूर्ण नहीं होती। फलत: देवताओं की पूजा अवैध है और शास्त्रीय नियमों का अनादर है।
इस कलिकाल में देवयज्ञ कर पाना असम्भव है। फलत: इस युग के लिए श्रीमद्भागवत में संकीर्तन यज्ञ की संस्तुति की गई है—यज्ञै संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस: (भागवत् ११.५.३२)—इस युग में बुद्धिमान व्यक्ति हरे कृष्ण के संकीर्तन द्वारा समस्त प्रकार के यज्ञों की पूर्ति करता है। तस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्ट:—जब भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं, तो उनके अंशरूप समस्त देवता भी प्रसन्न होते हैं।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत “दक्ष द्वारा शिव को शाप” नामक दूसरे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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