तस्मिन्नर्हत्सु सर्वेषु स्वर्चितेषु यथार्हत: ।
उत्थित: सदसो मध्ये ताराणामुडुराडिव ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
तस्मिन्—उस सभा में; अर्हत्सु—पूज्यों का; सर्वेषु—सभी; सु-अर्चितेषु—भली-भाँति पूजित; यथा-अर्हत:—योग्यता के अनुसार; उत्थित:—उठकर खड़े हो गये; सदस:—सभासदों के; मध्ये—बीच; ताराणाम्—तारों के; उडु-राट्—चन्द्रमा; इव— सदृश ।.
अनुवाद
उस महान् सभा में महाराज पृथु ने सर्वप्रथम समस्त सम्मानीय अतिथियों की उनके पदों के अनुसार यथा-योग्य पूजा की। फिर वे उस सभा के मध्य में खड़े हो गये। ऐसा प्रतीत हुआ मानो तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा का उदय हुआ हो।
तात्पर्य
वैदिक पद्धति के अनुसार पृथु महाराज ने उस यज्ञस्थल पर महापुरुषों के स्वागत की जो व्यवस्था की थी वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतिथि स्वागत की पहली विधि उनका पाद-प्रक्षालन है और वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि जब
महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया, तो श्रीकृष्ण को अतिथियों के पाद-प्रक्षालन का कार्य सौंपा गया था। इसी तरह महाराज पृथु ने भी देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों तथा महाराजाओं के समुचित स्वागत की व्यवस्था की थी।
____________________________
All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥