निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य पारं परं जिगमिषोर्भवसागरस्य। सर्न्दशनं विषयिणाम् अथ योषितां च हा हन्त हन्त विष-भक्षणतोऽप्यसाधु ॥ इस श्लोक में आये हुए ब्रह्मणि शब्द की टीका निर्विशेषवादियों अथवा भागवत के कथावाचकों ने की है, जो जन्मना जाति-प्रथा के समर्थक हैं। उनके अनुसार ब्रह्मणि का अर्थ निर्गुण (निराकार) ब्रह्म है। किन्तु भक्त्या तथा गुणाभिधानेन शब्दों के प्रसंग में ऐसा अर्थ नहीं निकाला जा सकता। निर्विशेषवादियों के अनुसार निर्गुण ब्रह्म दिव्य गुणों से सम्पन्न नहीं होता, अत: हमें ब्रह्मणि का अर्थ “भगवान् में” ग्रहण करना चाहिए। जैसाकि अर्जुन ने भगवद्गीता में स्वीकार किया है श्रीकृष्ण ही भगवान् हैं, अत: जहाँ कहीं भी ब्रह्म शब्द आया है, वह श्रीकृष्ण के लिए प्रयुक्त है, निर्गुण ब्रह्म तेज के लिए नहीं। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते (भागवत १.२.११)। ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् इन सबको ब्रह्म माना जा सकता है, किन्तु जहाँ भक्ति शब्द का प्रसंग आए या दिव्य गुणों के स्मरण का उल्लेख है, तो यह भगवान् का द्योतक होगा, निर्गुण ब्रह्म का नहीं। |