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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 22: चारों कुमारों से पृथु महाराज की भेंट  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  4.22.35 
तत्रापि मोक्ष एवार्थ आत्यन्तिकतयेष्यते ।
त्रैवर्ग्योऽर्थो यतो नित्यं कृतान्तभयसंयुत: ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ; अपि—भी; मोक्ष:—मोक्ष; एव—निश्चय ही; अर्थे—के हेतु; आत्यन्तिकतया—सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण; इष्यते— ग्रहण करे; त्रै-वर्ग्य:—अन्य तीन, अर्थात् धर्म, अर्थ तथा काम; अर्थ:—हित, पुरुषार्थ; यत:—जिससे; नित्यम्—नियमित रूप से; कृत-अन्त—मृत्यु; भय—डर; संयुत:—संलग्न ।.
 
अनुवाद
 
 चारों पुरुषार्थ अर्थात्—धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष—में से मोक्ष को अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। अन्य तीन तो प्रकृति के कठोर नियम अर्थात् काल (मृत्यु) द्वारा नाशवान् हैं।
 
तात्पर्य
 मोक्ष को अन्य तीन पुरुषार्थों की अपेक्षा अधिक गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। जैसाकि सूत गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में उपदेश दिया है कि धर्म आर्थिक विकास की सफलता पर अवलम्बित नहीं है। चूँकि हम इन्द्रियतृप्ति में अत्यधिक आसक्त रहते हैं, अत: हम मन्दिर या गिरजाघर में ईश्वर के पास किसी न किसी आर्थिक कारण से जाते हैं। किन्तु आर्थिक विकास का अर्थ इन्द्रियतृप्ति नहीं है। हमें चाहिए कि इन सबमें ऐसा समंजन करें कि हमें मोक्ष प्राप्त हो सके। इसीलिए इस श्लोक में मोक्ष पर बल दिया गया है। अन्य तीन पुरुषार्थ भौतिक होने के कारण नश्वर हैं। इस जीवन में बैंक में किसी भी द्वारा प्रचुर धन संचित कर लेने तथा अनेक वस्तुओं का स्वामी बन जाने पर भी सारी वस्तुएँ मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाएँगी। भगवद्गीता में कहा गया है कि मृत्यु तो भगवान् है, जो भौतिकतावादी मनुष्य द्वारा अर्जित सारी वस्तुएँ अपने साथ लेते जाते हैं। मूर्खतावश हम इसकी ओर ध्यान नहीं देते। मूर्खतावश न तो हम मृत्यु से डरते हैं, न ही इसका विचार करते हैं कि मृत्यु अपने साथ धर्म, अर्थ तथा काम के द्वारा अर्जित प्रत्येक वस्तु को लेती जाएगी। धर्म के द्वारा हमें स्वर्ग की भी प्राप्ति हो सकती है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग के चंगुल से भी हमें छुटकारा मिल गया। तात्पर्य यह कि हम त्रैवर्ग्य—धर्म, अर्थ तथा काम—के अपने-अपने स्वार्थों की बलि तो कर सकते हैं, किन्तु मोक्ष की नहीं। मोक्ष के सम्बन्ध में भगवद्गीता (४.९) में कहा गया है—त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति। मोक्ष का अर्थ होता है कि इस शरीर को त्यागने के बाद मनुष्य को दूसरा शरीर ग्रहण नहीं करना होता। निर्विशेषवादियों के लिए मोक्ष का अर्थ है निर्गुण ब्रह्म से तादात्म्य। किन्तु वास्तव में यह मोक्ष नहीं है, क्योंकि मनुष्य को उस निर्गुण पद से पुन: इस भौतिक संसार में नीचे आना होता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की शरण खोजे और उनकी भक्ति में लग जाए। यही असली मोक्ष है। अत: निष्कर्ष यह निकला कि हमें पुण्य कर्म, आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृप्ति पर बल नहीं देना चाहिए। हमें तो भगवान् विष्णु के दिव्य धाम पहुँचने की चिन्ता करनी चाहिए। जिनमें से गोलोक वृन्दावन सबसे ऊपर है और वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण निवास करते हैं। अत: मोक्ष के इच्छुक लोगों के लिए यह कृष्णभावनामृत-आन्दोलन सबसे बड़ा उपहार है।
 
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