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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 22: चारों कुमारों से पृथु महाराज की भेंट  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  4.22.48 
मैत्रेय उवाच
त आत्मयोगपतय आदिराजेन पूजिता: ।
शीलं तदीयं शंसन्त: खेऽभवन्मिषतां नृणाम् ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—महर्षि मैत्रेय ने कहा; ते—वे; आत्म-योग-पतय:—भक्ति द्वारा आत्म-साक्षात्कार के स्वामी; आदि-राजेन—मूल राजा (पृथु) द्वारा; पूजिता:—पूजित; शीलम्—आचरण; तदीयम्—राजा का; शंसन्त:—प्रशंसति होकर; खे—आकाश में; अभवन्—प्रकट हुआ; मिषताम्—देखते हुए; नृणाम्—मनुष्यों के ।.
 
अनुवाद
 
 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : महाराज पृथु द्वारा इस प्रकार पूजित होकर भक्ति में प्रवीण ये चारों कुमार अत्यन्त गद्गद हुए। दरअसल वे आकाश में दिखाई पड़े और उन्होंने राजा के शील की प्रशंसा की और सभी लोगों ने उनके दर्शन किये।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि देवता कभी भूतल का स्पर्श नहीं करते। वे केवल आकाश में ही चलते-फिरते और यात्रा करते हैं। महर्षि नारद की भाँति ही कुमारों को भी आकाश में यात्रा करने के लिए किसी यान (यंत्र) की आवश्यकता नहीं पड़ती। सिद्धलोक के वासी भी बिना यान के अन्तरिक्ष में विचरण कर सकते हैं। चूँकि वे एक लोक से दूसरे लोक को जा सकते हैं, इसलिए वे सिद्ध कहलाते हैं—अर्थात् उन्होंने सभी योग शक्तियाँ प्राप्त की हैं। ऐसे योगसिद्ध पुरुष इस युग में पृथ्वी पर नहीं मिलते, क्योंकि मानवता इसकी पात्र नहीं है। फिर भी कुमारों ने महाराज पृथु के गुणों की तथा उनकी भक्तिमयता एवं विनयशीलता की प्रशंसा की। वे राजा पृथु की पूजा-विधि से अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। महाराज पृथु की अनुकम्पा से ही उनकी प्रजा कुमारों को आकाश मार्ग में उड़ते देख सकी।
 
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