साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रै रुक्तस्तथा भाव्यत एव सद्भि:। किन्तु प्रभोर्य: प्रिय एव तस्य वन्दे गुरो: श्रीचरणारविन्दम् ॥ “गुरु का सम्मान परमेश्वर के ही समान किया जाता है, क्योंकि वह भगवान् का परम विश्वसनीय सेवक होता है। इसे सभी शास्त्रों ने स्वीकार किया गया है और सभी विद्वानों ने इसका पालन किया है, अत: मैं श्रीहरि के प्रामाणिक प्रतिनिधि, अपने गुरु के चरणकमलों को नमस्कार करता हूँ।” परम वैष्णव गुरु होता है और भगवान् से अभिन्न। कहा जाता है कि कभी-कभी भगवान् चैतन्य महाप्रभु गोपियों के नाम का जप करते थे। जब उनके कुछ शिष्य उनसे इस के बजाय श्रीकृष्ण का नाम लेने को कहते तो वे शिष्यों पर अत्यन्त रूष्ट हो जाते थे। इस घटना को लेकर इतना वितण्डा हो गया कि चैतन्य महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया क्योंकि गृहस्थ आश्रय में उन्हें गम्भीरता पूर्वक नहीं लिया जाता था। चूँकि श्री चैतन्य महाप्रभु गोपियों के नाम का जप करते थे, अत: गोपियों या भगवान् के भक्तों की पूजा भगवान् की भक्ति के ही समान है। भगवान् ने स्वयं भी कहा है कि मेरे भक्तों की भक्ति करना मेरी प्रत्यक्ष भक्ति से श्रेष्ठ है। कभी-कभी सहजिया भक्त अन्य भक्तों के कार्य- कलापों को छोडक़र केवल श्रीकृष्ण की व्यक्तिगत लीलाओं में ही रुचि रखते हैं। ऐसा भक्त उच्चस्तरीय नहीं होता। जो भक्त तथा भगवान् को समान स्तर (पद) पर देखता है, वही आगे उन्नति करता है। |