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श्लोक |
हर्यक्षायादिशत्प्राचीं धूम्रकेशाय दक्षिणाम् ।
प्रतीचीं वृकसंज्ञाय तुर्यां द्रविणसे विभु: ॥ २ ॥ |
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शब्दार्थ |
हर्यक्षाय—हर्यक्ष को; अदिशत्—प्रदान किया; प्राचीम्—पूर्व दिशा; धूम्रकेशाय—धूम्रकेश को; दक्षिणाम्—दक्षिण दिशा; प्रतीचीम्—पश्चिम दिशा; वृक-संज्ञाय—वृक नामक भाई को; तुर्याम्—उत्तर दिशा; द्रविणसे—द्रविण को; विभु:—स्वामी ।. |
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अनुवाद |
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महाराज विजिताश्व ने संसार का पूर्वी भाग अपने भाई हर्यक्ष को, दक्षिणी भाग धूम्रकेश को, पश्चिमी भाग वृक को तथा उत्तरी भाग द्रविण को प्रदान किया। |
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