सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। “मैं प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्थित हूँ और मुझी से स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति उत्पन्न होती हैं।” भगवान् कुछ ऐसा करते हैं जिससे असुर लोग तो उन्हें भूल जाते हैं, किन्तु भक्त उनका स्मरण करते रहते हैं। मनुष्य में निवृत्ति भी भगवान् के ही कारण है। भगवद्गीता के अनुसार (१६.७)— प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा:—असुरों को यह पता नहीं रहता कि किधर प्रवृत्त हुआ जाये और किधर नहीं। यद्यपि असुर भक्ति के विरोधी हैं, किन्तु यह समझ लेना चाहिए कि वे भगवान् की इच्छा से ऐसा करते हैं। चूँकि असुर भगवान् की भक्ति नहीं करना चाहते, अत: भगवान् उनके ह्रदय के भीतर से उन्हें ऐसी बुद्धि देते हैं कि वे उन्हें भूल जाँय। सामान्य कर्मी पितृलोक जाना चाहते हैं जैसाकि भगवद्गीता (९.२५) में कहा गया है—यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रता:—“जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं में जन्म लेंगे और जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाएँगे।” इस श्लोक का दु:खदाय शब्द भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जो अभक्त हैं, वे जन्ममरण के चक्र में निरन्तर घूमते रहते हैं। यह अत्यन्त दुखदायी अवस्था है। चूँकि कर्मों के अनुसार मनुष्य को पद प्राप्त होता है, अत: असुर या अभक्त ऐसी दुखदायी स्थितियों में पड़े रहते हैं। |