मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ॥ “मेरे अव्यक्त रूप द्वारा यह सारा ब्रह्माण्ड व्याप्त है। सारे जीव मुझमें स्थित हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।” भगवद्गीता का यह श्लोक बताता है कि भगवान् अपने ब्रह्म स्वरूप के कारण सर्वत्र व्याप्त हैं। प्रत्येक वस्तु उन पर टिकी है, किन्तु वे उसमें नहीं रहते। इससे निष्कर्ष यह निकला कि बिना भक्तियोग के निर्विशेषवादी भी ब्रह्मतत्त्व को नहीं समझ सकते। वेदान्त सूत्र का कथन है—अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। इसका अर्थ है कि हमें ब्रह्म, परमात्मा या परब्रह्म को समझना चाहिए। श्रीमद्भागवत में भी परम सत्य को अद्वितीय बताया गया है, किन्तु उनका बोध तीन रूपों में किया जाता है—निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान्। भगवान् ही अन्तिम सत्य हैं और इस श्लोक में शिवजी पुष्टि करते हैं कि परम सत्य व्यक्ति हैं। वे स्पष्ट कहते हैं—तत्त्वं ब्रह्म परं ज्योतिराकाशमिव विस्तृतम्। यहाँ एक सामान्य उदाहरण दिया जा रहा है—एक सफल व्यापारी के कई फैक्टरियाँ तथा आफिस हैं और उसके आदेश से सारे कार्य चलते हैं। यदि कोई यह कहे कि सारा व्यापार अमुक व्यक्ति पर निर्भर है, तो उसके कहने का प्रयोजन यह नहीं है कि सारी फैक्टरियाँ तथा आफिस उस व्यक्ति के सर पर टिके हैं। अपितु इसका अर्थ यह है कि वह अपने मस्तिष्क से या अपनी शक्ति के विस्तार द्वारा अबाध रूप से अपना व्यापार चला रहा है। इसी प्रकार भगवान् की बुद्धि तथा शक्ति से भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत का कार्य चल रहा है। यहाँ पर अद्वैतवाद का जो सिद्धान्त बताया गया है, वह इस तथ्य से मेल खाता है कि समस्त शक्ति के परम स्रोत भगवान् कृष्ण हैं। इसका स्पष्ट वर्णन हुआ है। यह भी बताया गया है कि श्रीकृष्ण के निर्गुण स्वरूप को कैसे जाना जा सकता है— रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:। प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ॥ “हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ; वैदिक मंत्रों में ॐ अक्षर हूँ, मैं आकाश में शब्द और मनुष्य में पौरुष हूँ।” (भगवद्गीता ७.८) इस प्रकार कृष्ण को प्रत्येक वस्तु की योग शक्ति माना जा सकता है। |