धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां विश्वक्सेनकथासु य:। नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ निष्कर्ष यह है कि अपने-अपने वृत्तिपरक कर्म को निबाहते हुए कृष्णभक्ति के कार्य में बाधा नहीं पहुँचने देना चाहिए। मात्र श्रवणं कीर्तनं की भक्ति करनी चाहिए। अपने कर्म (धर्म) को नहीं छोडऩा चाहिए। जैसाकि भगवद्गीता (१८.४६) में कहा गया है— यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: ॥ “मनुष्य अपना कर्म करता हुआ जीवों के उद्गम तथा सर्वव्यापी भगवान् की पूजा करके सिद्धि प्राप्त कर सकता है।” इस प्रकार मनुष्य अपना कर्म करता रह सकता है, किन्तु यहाँ पर शिवजी ने जो स्तुति बताई है यदि उससे मनुष्य भगवान् की पूजा करता है, तो उसका जीवन पूर्णरूपेण सफल हो जाता है। स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम् (भागवत १.२.१३)। हमें अपना कर्म तो करना ही चाहिए, किन्तु यदि हम अपने कर्मों से भगवान् को प्रसन्न कर सकें तो हमारा जीवन सफल हो जाये। |