न—नहीं; एकान्तत:—अन्तत:; प्रतीकार:—निवारण; कर्मणाम्—विभिन्न कर्मों का; कर्म—अन्य कर्म; केवलम्—एकमात्र; द्वयम्—दोनों; हि—क्योंकि; अविद्या—मोह के कारण; उपसृतम्—स्वीकृत; स्वप्ने—स्वप्न में; स्वप्न:—सपना; इव—सदृश; अनघ—हे पापकर्मों से मुक्त, शुद्ध हृदय ।.
अनुवाद
नारद ने आगे कहा : हे शुद्धहृदय पुरुष, कोई भी व्यक्ति कर्मों के फल का निराकरण कृष्णभक्ति से रहित अन्य कर्म करके नहीं कर सकता। ऐसे सारे कर्म हमारे अज्ञान के कारण हैं। जब हम कोई कष्टप्रद स्वप्न देखते हैं, तो हम किसी कष्टप्रद व्यामोह के द्वारा छुटकारा नहीं पा सकते। स्वप्न का निवारण तो जग कर ही किया जा सकता है। इसी प्रकार हमारा भौतिक अस्तित्व हमारे अज्ञान तथा मोह के कारण है। जब तक हममें कृष्णभक्ति नहीं जग जाती, ऐसे स्वप्नों से छुटकारा नहीं मिल सकता। समस्त समस्याओं को हल कर लेने के लिए हमें कृष्णचेतना को जागृत करना होगा।
तात्पर्य
सकाम कर्म दो प्रकार के हैं। बोझ को चाहे हम सिर पर रखें या कन्धे पर, वास्तव में बोझ तो किसी भी स्थान पर एक-जैसा है। किन्तु बोझ के स्थान का परिवर्तन निवारण के नाम पर होता है। इस सम्बन्ध में प्रह्लाद महाराज ने कहा है कि इस संसार में मूढ़ लोग शारीरिक सुख के लिए, यह जाने बिना, इतना विस्तृत आयोजन करते हैं कि यदि ये योजनाएँ सफल हो भी जाँय तो वे आखिरकार माया ही तो होते हैं। लोग मायावी शरीर-सुख के लिए दिन-रात कार्य करते हैं, किन्तु सुख प्राप्त करने का यह ढंग नहीं है। मनुष्य को भौतिक बन्धन से निकलकर भगवान् के धाम को वापस
जाना होता है। यही वास्तविक सुख है। इसलिए वेदों का आदेश है—“इस भौतिक जगत के अधंकार में मत रहो। आध्यात्मिक जगत के प्रकाश में जाओ।” इस भौतिक शरीर के दुख के निराकरण हेतु एक दूसरी कष्टमय स्थिति स्वीकार करनी होती है। ये दोनों ही स्थितियाँ केवल मोह हैं। एक कष्ट के निवारण हेतु दूसरे कष्ट को सहने में कोई लाभ नहीं है। निष्कर्ष यह निकलता है कि जब तक मनुष्य इस संसार में विद्यमान रहता है, वह शाश्वत रूप से सुखी नहीं रह सकता। इसका एकमात्र निवारण है इस भौतिक जगत से सदा के लिए मुक्त होकर भगवान् के धाम को वापस जाना।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥