ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ “जो लोग मेरी सतत भक्ति करते तथा प्रेमपूर्वक मेरी पूजा करते हैं, उन्हें मैं बुद्धि प्रदान करता हूँ जिससे वे मेरे पास आ सकते हैं।” वास्तविक बुद्धि का अर्थ है भगवान् से जुडऩा। जब ऐसा हो जाता है, तो भगवान् अन्त:करण से वास्तविक बुद्धि प्रदान करते रहते हैं जिससे मनुष्य भगवान् के धाम को वापस जा सकता है। इस श्लोक में भौतिक बुद्धि को प्रमदा के रूप में वर्णन किया गया है, क्योंकि इस संसार में जीव झूठे ही वस्तुओं को अपनी कहता है। वह सोचता है कि मैं एक-छत्र राजा हूँ। यह अविद्या है। वास्तव में उसका कुछ नहीं होता। यहाँ तक कि शरीर तथा इन्द्रियाँ भी उसकी नहीं होती, क्योंकि ये उसे भगवान् की प्रेरणा से प्रकृति द्वारा उसकी विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रदत्त हैं। वास्तव में जीव का कुछ भी नहीं है, किन्तु वह प्रत्येक वस्तु के पीछे पगलाया रहता है और कहता है, “यह मेरी है, यह मेरी है, यह मेरी है।” जनस्य मोहोऽयम् अहं ममेति। यही मोह है। जीव का कुछ भी नहीं है, किन्तु वह हर वस्तु को अपनी बताता है। भगवान् चैतन्य महाप्रभु संस्तुति करते हैं कि इस मिथ्या बुद्धि को मार्जित करना चाहिए (चेतो-दर्पण-मार्जनम् )। जब बुद्धि रूपी दर्पण चमकने लगता है, तो जीव के असली कार्य प्रारम्भ होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जब मनुष्य कृष्णचेतना को प्राप्त होता है, तो उसकी असली बुद्धि कार्य करती है। उस समय उसे ज्ञान होता है कि प्रत्येक वस्तु तो श्रीकृष्ण की है, मेरी नहीं। जब तक मनुष्य हर वस्तु को अपनी मानता है तब तक वह भौतिक चेतना में रहता है और जब वह पूरी तरह समझ जाता है कि हर वस्तु श्रीकृष्ण की है, तो वह कृष्णचेतना को प्राप्त कर लेता है। |