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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 29: नारद तथा राजा प्राचीनबर्हि के मध्य वार्तालाप  »  श्लोक 68
 
 
श्लोक  4.29.68 
सर्वे क्रमानुरोधेन मनसीन्द्रियगोचरा: ।
आयान्ति बहुशो यान्ति सर्वे समनसो जना: ॥ ६८ ॥
 
शब्दार्थ
सर्वे—सभी; क्रम-अनुरोधेन—क्रमानुसार; मनसि—मन में; इन्द्रिय—इन्द्रियों द्वारा; गोचरा:—अनुभूत; आयान्ति—आते हैं; बहुश:—अनेक प्रकार से; यान्ति—चले जाते हैं; सर्वे—सभी; समनस:—मन से; जना:—जीव ।.
 
अनुवाद
 
 जीव का मन विभिन्न स्थूल शरीरों में रहा करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए व्यक्ति की इच्छाओं के अनुसार मन विविध विचारों को अंकित करता रहता है। ये मन में विभिन्न मिश्रणों (मेलों) के रूप में प्रकट होते हैं। अत: कभी-कभी ये प्रतिबिम्ब ऐसी वस्तुओं के रूप में प्रकट होते हैं, जो पहले न तो कभी सुनी गई और न देखी गई होती हैं।
 
तात्पर्य
 कुत्ते के शरीर में स्थित जीव के कार्यों का अनुभव किसी भिन्न शरीर के मन द्वारा किया जा सकता है, अत: ये कार्य न तो कभी सुने गए और न ही देखे गए प्रतीत होते हैं। मन बना रहता है, यद्यपि शरीर बदल जाता है। यहाँ तक कि इसी जीवन में भी हम कभी-कभी अपने बचपन के स्वप्नों का अनुभव करते हैं। यद्यपि ऐसी घटनाएँ बाद में विचित्र लगती हैं, किन्तु वे सब मन में अंकित हुई रहती हैं, फलत: वे स्वप्न में दिखाई पड़ती हैं। सूक्ष्म शरीर समस्त प्रकार की भौतिक इच्छाओं का भण्डार है और इसी के द्वारा आत्मा का देहान्तरण होता है। जब तक मनुष्य कृष्णभक्ति में पूर्ण रूप से निमग्न नहीं होगा, तब तक वे इच्छाएँ आती-जाती रहेंगी। यह तो मन का स्वभाव है सोचना, अनुभव करना और इच्छा करना। जब तक मन भगवान् कृष्ण के चरणकमलों के ध्यान में संलग्न नहीं होगा, तब तक वह नाना प्रकार के भौतिक भोगों की इच्छा करता रहेगा। ऐन्द्रिय प्रतिबिम्बों का अंकन क्रमानुसार हुआ रहता है और वे एक-एक करके प्रकट होते हैं, अत: जीव को एक के बाद दूसरा शरीर धारण करना होता है। मन भौतिक सुख की योजना बनाता है और स्थूल शरीर इन्हें पूरा करने के साधन प्रदान करता है। मन वह मंच है, जिससे होकर समस्त इच्छाएँ तथा योजनाएँ आती-जाती हैं।

अत: श्रील नरोत्तम दास ठाकुर गाते हैं—

गुरु मुख पद्मवाक्य, चित्तेते करिया ऐक्य आर न करिह मने आशा।

नरोत्तम दास ठाकुर सबों को गुरु के आदेशों का पालन करने का उपदेश देते हैं। मनुष्य को और कोई कामना नहीं करनी चाहिए। यदि गुरु द्वारा बताये गये विधि-विधानों का दृढ़तापूर्वक पालन हो तो मन कृष्ण की सेवा के अतिरिक्ति अन्य किसी प्रकार की इच्छा नहीं कर सकेगा। ऐसा प्रशिक्षण ही जीवन की सार्थकता है।

 
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