इस प्रसंग में पूर्ण चन्द्र के समक्ष होने वाला अंधकार, जिसे चन्द्र-ग्रहण कहते हैं, राहु नामक एक अन्य ग्रह के रूप में होता है। वैदिक ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार यद्यपि राहु ग्रह अदृश्य है, किन्तु इसे ग्रह के रूप में स्वीकार किया जाता है। कभी-कभी यह ग्रह पूर्णमासी की रात्रि में दिखता है। तब यह ग्रह चन्द्रमा की कक्षा के निकट विद्यमान प्रतीत होता है। आधुनिक चन्द्रयात्रियों की विफलता का कारण यही राहु ग्रह हो सकता है दूसरे शब्दों में जो लोग चन्द्रमा की यात्रा पर जाते हैं, वे सम्भवत: इस अदृश्य राहु ग्रह की यात्रा करते है। वे चन्द्रमा तक न जाकर राहु ग्रह पर पहुंच कर ही वापस चले आते हैं। इस संदर्भ के अतिरिक्त बात यह है कि जीव में भौतिक सुखभोग की अनन्त इच्छाएँ रहती हैं और उसे एक स्थूल शरीर से अन्य शरीर में तब तक देहान्तर करना पड़ता है जब तक उन इच्छाओं का अन्त नहीं हो जाता। जब तक जीव कृष्णभक्ति स्वीकार नहीं करता, कोई भी जीव जन्म-मृत्यु के चक्र से बच नहीं पाता, अत: इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्णभक्ति में तल्लीन होने पर एक ही झटके में जीव भूत तथा भविष्य के मनोरथों से मुक्त हो जाता है (सत्त्वैकनिष्ठे )। तब भगवत् कृपा से सारी वस्तुएँ एकसाथ मन के भीतर प्रकट होती है। इस प्रसंग में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने माता यशोदा का उदाहरण दिया है जिन्हें भगवान् के मुख के भीतर सारा दृश्य जगत दिखा। भगवान् की ही कृपा से माता यशोदा को श्रीकृष्ण के मुख के भीतर सारे ब्रह्माण्ड तथा लोक दिखलाई पड़े। इसी प्रकार कृष्णभक्त एकसाथ अपनी सुप्त इच्छाओं को देख सकता है और भावी देहान्तर से सदा के लिए मुक्ति पा सकता है। यह सुविधा विशेषत: भक्त को प्रदान की जाती है, जिससे भगवान् के धाम वापस जाने का रास्ता साफ हो जाये। यहाँ पर इसकी व्याख्या की गई है कि जिन वस्तुओं का अनुभव हमें इस जीवन में नहीं होता, उन्हें भी हम क्यों देखते हैं। जो कुछ हम देखते हैं, वह स्थूल देह की भावी अभिव्यक्ति होती है या जो पहले से ही मन:-पटल पर संचित होता है। चूँकि कृष्णभक्त को भावी स्थूल देह धारण नहीं करनी पड़ती, अत: उसकी अंकित इच्छाओं की पूर्ति स्वप्न में हो जाती है। इसीलिए कभी-कभी हमें स्वप्न में ऐसी वस्तुएँ दिख जाती है जिनका हमारे वर्तमान जीवन में अनुभव नहीं हुआ रहता। |