श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  4.3.1 
मैत्रेय उवाच
सदा विद्विषतोरेवं कालो वै ध्रियमाणयो: ।
जामातु: श्वशुरस्यापि सुमहानतिचक्रमे ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; सदा—निरन्तर; विद्विषतो:—तनाव; एवम्—इस प्रकार; काल:—समय; वै—निश्चय ही; ध्रियमाणयो:—सहन करते हुए; जामातु:—दामाद का; श्वशुरस्य—ससुर का; अपि—भी; सु-महान्—अत्यधिक; अतिचक्रमे—बीत गया ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय ने आगे कहा : इस प्रकार से जामाता शिव तथा श्वसुर दक्ष के बीच दीर्घकाल तक तनाव बना रहा।
 
तात्पर्य
 पिछले अध्याय में विदुर ने मैत्रेय से प्रश्न किया था कि शिव तथा दक्ष के बीच मनोमालिन्य (कलह) का क्या कारण था? दूसरा प्रश्न है कि दक्ष तथा उनके दामाद के बीच होने वाले इस कलह से सती ने अपना शरीर नष्ट क्यों किया? सती द्वारा शरीर-त्याग का मुख्य कारण यह था कि दक्ष ने दूसरा यज्ञ प्रारम्भ किया, जिसमें शिव को आमंत्रित नहीं किया गया। सामान्यत: जब भी कोई यज्ञ किया जाता है, तो सभी देवताओं, विशेषत: ब्रह्मा, शिव तथा अन्य प्रमुख देवता, इन्द्र तथा चन्द्र, को आमंत्रित किया जाता है और वे सम्मिलित होते हैं यद्यपि प्रत्येक यज्ञ का ध्येय भगवान् विष्णु को तुष्ट करना होता है। कहा जाता है कि जब तक सब देवता उपस्थित न रहें, तब तक कोई भी यज्ञ पूरा नहीं होता। लेकिन दामाद तथा श्वसुर के बीच तनाव के होते हुए ही, दक्ष ने दूसरा यज्ञ प्रारम्भ कर दिया जिसमें शिवजी को आमंत्रित नहीं किया गया। ब्रह्मा ने दक्ष को मुख्य प्रजापति के रूप में नियुक्त किया था और वह बह्माजी का पुत्र था ही, अत: उसका पद ऊँचा था जिससे उसको बहुत घमंड होने लगा।
 
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