श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  4.3.10 
तत्र स्वसृर्मे ननु भर्तृसम्मिता
मातृष्वसृ: क्लिन्नधियं च मातरम् ।
द्रक्ष्ये चिरोत्कण्ठमना महर्षिभि-
रुन्नीयमानं च मृडाध्वरध्वजम् ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ; स्वसृ:—अपनी बहनें; मे—मेरी; ननु—निश्चय ही; भर्तृ-सम्मिता:—अपने-अपने पतियों के साथ; मातृ-स्वसृ:— मौसियाँ; क्लिन्न-धियम्—स्नेहिल; च—तथा; मातरम्—माता को; द्रक्ष्ये—देखूँगी; चिर-उत्कण्ठ-मना:—दीर्घकाल से उत्सुक; महा-ऋषिभि:—महान् ऋषियों द्वारा; उन्नीयमानम्—उठाये हुए; च—तथा; मृड—हे शिव; अध्वर—यज्ञ; ध्वजम्—झंडे ।.
 
अनुवाद
 
 वहाँ पर मेरी बहनें, मौसियाँ तथा मौसे एवं अन्य प्रिय परिजन एकत्र होंगे; अत: यदि मैं वहाँ तक जाऊँ तो उन सबों से मेरी भेंट हो जाये और साथ ही मैं उड़ती हुई ध्वजाएँ तथा ऋषियों द्वारा सम्पन्न होते यज्ञ को भी देख सकूँगी। हे प्रिय, इसी कारण से मैं जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।
 
तात्पर्य
 जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि श्वसुर तथा दामाद के बीच दीर्घकाल तक तनाव बना रहा। अत: सती अपने पिता के यहाँ काफी लम्बे समय से जा नहीं पाई थी। इसीलिए वह अपने पिता के घर (मायके) जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक थी, विशेष रूप से ऐसे अवसर पर जब उसकी सारी बहनें, उसके बहनोई तथा उसकी मौसियाँ वहाँ एकत्र हुई होंगी। जैसाकि हर स्त्री के लिए स्वाभाविक है, वह भी अपनी अन्य बहनों के समान वस्त्र धारण करना और पति के साथ जाना चाह रही थी। निस्सन्देह, वह अकेले नहीं जाना चाहती थी।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥