त्वय्येतदाश्चर्यमजात्ममायया
विनिर्मितं भाति गुणत्रयात्मकम् ।
तथाप्यहं योषिदतत्त्वविच्च ते
दीना दिदृक्षे भव मे भवक्षितिम् ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
त्वयि—तुममें; एतत्—वह; आश्चर्यम्—विस्मयजनक; अज—हे शिव; आत्म-मायया—परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति से; विनिर्मितम्—विरचित; भाति—प्रतीत होती है; गुण-त्रय-आत्मकम्—प्रकृति के तीनों गुणों की अन्त:क्रिया होने से; तथा अपि—तो भी; अहम्—मैं; योषित्—स्त्री; अतत्त्व-वित्—सत्य से अनजान; च—तथा; ते—तुम्हारी; दीना—गरीब, दुखिया; दिदृक्षे—देखना चाहती हूँ; भव—हे शिव; मे—मेरी (अपनी); भव-क्षितिम्—जन्म भूमि ।.
अनुवाद
यह दृश्य जगत त्रिगुणों की अन्त:क्रिया अथवा परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति की अद्भुत सृष्टि है। आप इस वास्तविकता से भलीभाँति परिचित हैं। किन्तु मैं तो अबला स्त्री हूँ और जैसा आप जानते हैं मैं सत्य से अनजान हूँ। अत: मैं एक बार फिर से अपनी जन्मभूमि देखना चाहती हूँ।
तात्पर्य
दाक्षायणी सती यह भलीभाँति जानती थी कि उसके पति शिवजी भौतिक जगत की चमक-दमक में, जो कि प्रकृति के तीनों गुणों की अन्त:क्रिया से उत्पन्न है, अधिक रुचि नहीं रखते। इसलिए उसने अपने पति को अज कहकर सम्बोधित किया है, जिसका अर्थ है, जो जन्म-मरण के बन्धन से परे है, अथवा जिसने अपना शाश्वत पद अनुभव कर लिया है। उसने कहा, “आपमें इस विकृत प्रतिबिम्ब अर्थात् दृश्य जगत को सत्य मानने जैसा मोह नहीं है, क्योंकि आप आत्मवेत्ता हैं। आपके लिए सामाजिक जीवन का आकर्षण यथा पिता, माता, बहन जैसे मिथ्या सम्बन्धों के विचार समाप्त हो चुके हैं, किन्तु मैं तो अबला ठहरी। मैं दिव्य-साक्षात्कार में इतनी अग्रसर नहीं हूँ। अत: स्वाभाविक है कि ये सब मुझे सत्य प्रतीत हो रहे हैं।” केवल अल्पज्ञानी इस आत्मजगत के विकृत प्रतिबिम्ब को वास्तविक मानते हैं। जो लोग बहिरंगा शक्ति के वशीभूत हैं, वे इस जगत को वास्तविक मानते हैं, किन्तु जो आत्म-ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं वे इसे मोह मानते हैं। वास्तविकता तो कहीं और अर्थात् अध्यात्मिक जगत में है। सती ने कहा, “जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे आत्म-साक्षात्कार का अधिक ज्ञान नहीं है। मैं दीन हूँ, क्योंकि मुझे वास्तविकता का ज्ञान नहीं है। मुझे तो अपनी जन्मभूमि खींच रही है और मैं उसे देखना चाहती हूँ।” जिसे अपनी जन्मभूमि, अपनी देह तथा भागवत में उद्धृत ऐसी ही अन्य वस्तुओं के प्रति आकर्षण पाया जाता है, वह गधे या गऊ तुल्य हैं। सती ने यह सब अपने पति से अनेक बार सुना होगा, किन्तु योषित् (स्त्री) होने के कारण उसे इन भौतिक वस्तुओं के प्रति स्नेह बना हुआ था। योषित् का अर्थ है, “जिसका भोग किया जाये, भुक्ति” इसीलिए स्त्री योषित् कहलाती है। आध्यात्मिक उन्नति में योषित् की संगति वर्जित है, क्योंकि योषित् के हाथ का खिलौना बन जाने से सारी उन्नति रुक जाती है। कहा गया है, “जो लोग स्त्री के हाथों में खिलौने बने रहते हैं” (योषित्-क्रीडा-मृगेषु) वे आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रगति नहीं कर सकते।
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