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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  4.3.13 
कथं सुताया: पितृगेहकौतुकं
निशम्य देह: सुरवर्य नेङ्गते ।
अनाहुता अप्यभियन्ति सौहृदं
भर्तुर्गुरोर्देहकृतश्च केतनम् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
कथम्—कैसे; सुताया:—पुत्री को; पितृ-गेह-कौतुकम्—पिता के घर में उत्सव; निशम्य—सुनकर; देह:—शरीर; सुर-वर्य—हे देवों में श्रेष्ठ; —नहीं; इङ्गते—विचलित; अनाहुता:—बिना बुलाये; अपि—ही; अभियन्ति—जाता है; सौहृदम्—मित्र; भर्तु:— पति के; गुरो:—गुरु के; देह-कृत:—पिता के; —तथा; केतनम्—घर ।.
 
अनुवाद
 
 हे देवश्रेष्ठ, भला एक पुत्री का शरीर यह सुनकर कि उसके पिता के घर में कोई उत्सव हो रहा है, विचलित हुए बिना कैसे रह सकता है? यद्यपि आप यह सोच रहे होंगे कि मुझे आमंत्रित नहीं किया गया, किन्तु अपने मित्र, पति, गुरु या पिता के घर बिना बुलाये भी जाने में कोई हानि नहीं होती।
 
 
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