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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  4.3.14 
तन्मे प्रसीदेदममर्त्य वाञ्छितं
कर्तुं भवान्कारुणिको बतार्हति ।
त्वयात्मनोऽर्धेऽहमदभ्रचक्षुषा
निरूपिता मानुगृहाण याचित: ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—अत:; मे—मुझ पर; प्रसीद—कृपालु हों; इदम्—यह; अमर्त्य—हे अमर; वाञ्छितम्—इच्छा; कर्तुम्—करने की; भवान्—आप; कारुणिक:—दयालु; बत—हे स्वामी; अर्हति—समर्थ; त्वया—आपके द्वारा; आत्मन:—आपके ही शरीर के; अर्धे—आधे भाग में; अहम्—मैं; अदभ्र-चक्षुषा—सभी ज्ञान से युक्त; निरूपिता—स्थित; मा—मुझको; अनुगृहाण—अनुग्रहीत करें; याचित:—प्रार्थित ।.
 
अनुवाद
 
 हे अमर शिव, कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरी इच्छा पूरी करें। आपने मुझे अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया है, अत: मुझ पर दया करके मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।
 
 
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