नैतादृशानां स्वजनव्यपेक्षया
गृहान्प्रतीयादनवस्थितात्मनाम् ।
येऽभ्यागतान् वक्रधियाभिचक्षते
आरोपितभ्रूभिरमर्षणाक्षिभि: ॥ १८ ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; एतादृशानाम्—इस प्रकार; स्व-जन—सम्बन्धी के; व्यपेक्षया—उस पर निर्भर रह कर; गृहान्—घर में; प्रतीयात्— जाना चाहिए; अनवस्थित—विचलित; आत्मनाम्—मन; ये—जो; अभ्यागतान्—अतिथि; वक्र-धिया—अनादर से; अभिचक्षते—देखते हुए; आरोपित-भ्रूभि:—उठी हुई भृकुटियों से; अमर्षण—क्रुद्ध; अक्षिभि:—आँखों से ।.
अनुवाद
मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी स्थिति में किसी दूसरे व्यक्ति के घर न जाये, भले ही वह उसका सम्बन्धी या मित्र ही क्यों न हो, जब वह मन से क्षुब्ध हो और अतिथि को तनी हुई भृकुटियों एवं क्रुद्ध नेत्रों से देख रहा हो।
तात्पर्य
कोई व्यक्ति चाहे कितना ही नीच क्यों न हो, वह अपनी सन्तान, पत्नी तथा सम्बन्धियों पर कभी निर्दय नहीं होता। यहाँ तक कि बाघ भी अपने बच्चों के प्रति दयालु होता है क्योंकि पशुजगत में बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है। चूँकि सती दक्ष की पुत्री थी, अत: चाहे वह कितना ही क्रूर एवं दूषित क्यों न रहा हो, उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह सती का उत्तम रीति से स्वागत करेगा। किन्तु यहाँ पर अनवस्थित शब्द यह संकेत करता है कि ऐसे व्यक्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता। बाघ अपने बच्चों पर सदय होते हैं, किन्तु कभी-कभी वे उन्हें खा जाते हैं। विद्वेषपूर्ण (कपटी) व्यक्तियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे सदैव ढुलमुल रहते हैं। इसीलिए सती से शिव ने कहा कि वह अपने मायके न जाये क्योंकि ऐसे पिता को सम्बन्धी मानकर बिना आमंत्रण के उसके घर जाना उचित नहीं था।
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