श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  4.3.20 
व्यक्तं त्वमुत्कृष्टगते: प्रजापते:
प्रियात्मजानामसि सुभ्रु मे मता ।
तथापि मानं न पितु: प्रपत्स्यसे
मदाश्रयात्क: परितप्यते यत: ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
व्यक्तम्—स्पष्ट है; त्वम्—तुम; उत्कृष्ट-गते:—उत्तम आचरण वाली; प्रजापते:—प्रजापति दक्ष की; प्रिया—अत्यन्त प्रिय; आत्मजानाम्—पुत्रियों में; असि—हो; सुभ्रु—हे सुन्दर भौंहों वाली; मे—मेरा; मता—विचार कर; तथा अपि—फिर भी; मानम्—सम्मान; न—नहीं; पितु:—अपने पिता से; प्रपत्स्यसे—प्राप्त करोगी; मत्-आश्रयात्—मुझसे सम्बन्धित होने से; क:— दक्ष; परितप्यते—पीड़ा का अनुभव करता है; यत:—जिससे ।.
 
अनुवाद
 
 हे शुभ्रांगिनी प्रिये, यह स्पष्ट है कि तुम दक्ष को अपनी पुत्रियों में सबसे अधिक प्यारी हो, तो भी तुम उसके घर में सम्मानित नहीं होगी, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो। उल्टे तुम्हें ही दुख होगा कि तुम मुझसे सम्बन्धित हो।
 
तात्पर्य
 शिवजी ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि यदि सती अपने पति के बिना ही अकेले जाना चाहे तो भी उसका ठीक से सम्मान नहीं होगा, क्योंकि वह उनकी पत्नी जो ठहरी। भले ही वह अकेले ही क्यों न जाए, अनहोनी की प्रबल सम्भावना है। अत: शिवजी ने अप्रत्यक्ष रूप से सती को अपने पिता के घर न जाने का आग्रह किया।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥