श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  4.3.21 
पापच्यमानेन हृदातुरेन्द्रिय:
समृद्धिभि: पूरुषबुद्धिसाक्षिणाम् ।
अकल्प एषामधिरोढुमञ्जसा
परं पदं द्वेष्टि यथासुरा हरिम् ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
पापच्यमानेन—जलते हुए; हृदा—हृदय में; आतुर-इन्द्रिय:—संकटग्रस्त; समृद्धिभि:—पवित्र ख्याति इत्यादि से.; पूरुष-बुद्धि साक्षिणाम्—परमेश्वर के ध्यान में सदैव लीन रहने वालों का; अकल्प:—असमर्थ होकर; एषाम्—उन पुरुषों का; अधिरोढुम्— उठने के लिए; अञ्जसा—शीघ्र; परम्—केवल; पदम्—स्तर तक; द्वेष्टि—द्वेष रखता है, कुढ़ता रहता है; यथा—जितना कि; असुरा:—असुरगण; हरिम्—श्रीभगवान् से ।.
 
अनुवाद
 
 जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित होकर सदैव मन से तथा इन्द्रियों से संतापित रहता है, वह स्वरूप-सिद्ध पुरुषों के ऐश्वर्य को सहन नहीं कर पाता। आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने में अक्षम होने से वह ऐसे पुरुषों से उसी प्रकार से ईर्ष्या करता है, जिस प्रकार असुर श्रीभगवान् से ईर्ष्या करते हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर शिवजी तथा दक्ष के मध्य शत्रुता का वास्तविक कारण बताया गया है। दक्ष शिवजी से ईर्ष्या करता था, क्योंकि शिवजी भगवान् के गुणावतार हैं और परमात्मा के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहने के कारण दक्ष की अपेक्षा उन्हें अच्छा पद प्राप्त था। इसके अतिरिक्त और भी अनेक कारण थे। भौतिक रूप से गर्वित होने के कारण दक्ष द्वारा शिव का उच्च पद सहन नहीं किया जा सका, अत: उसकी उपस्थिति में शिव का न खड़े होना उसके क्रोध का अन्तिम प्राकट्य ही था। शिवजी सदैव ध्यानमग्न रहते हैं और परमात्मा का साक्षात्कार करते रहते हैं जैसाकि यहाँ पर पुरुष बुद्धिसाक्षिणाम् शब्दों से सूचित होता है। जिसकी बुद्धि निरन्तर भगवान् के ध्यान में डूबी हो उसका पद अत्युच्च होता है और उसकी नकल कोई नहीं कर सकता, विशेष रूप से सामान्य व्यक्ति तो नहीं ही। जब दक्ष यज्ञस्थल में प्रविष्ट हुआ तो उस समय शिव ध्यानमग्न थे और हो सकता है कि उन्होंने उसे प्रवेश करते देखा ही न हो, किन्तु दक्ष ने इस अवसर का लाभ उठाकर उन्हें शाप दे डाला क्योंकि वह लम्बे समय से शिव के प्रति द्वेषपूर्ण रवैया अपनाये हुए था। जो वास्तव में स्वरूपसिद्ध हैं, वे प्रत्येक प्राणी को भगवान् के मन्दिर के रूप में देखते हैं, क्योंकि परमात्मा रूप में भगवान् प्रत्येक प्राणी के शरीर में निवास करते हैं।

जब कोई देह का सम्मान करता है, तो वह भौतिक शरीर का नहीं, अपितु परमेश्वर के अस्तित्व का आदर करता है। इस प्रकार जो परमेश्वर का निरन्तर ध्यान करता है, वह उन्हें सदैव नमस्कार करता रहता है। किन्तु दक्ष अधिक जागृत नहीं था, अत: वह सोचता था कि भौतिक देह को नमस्कार ही सम्मान है और चूँकि शिवजी ने उसके भौतिक शरीर का आदर नहीं किया था, इसलिए दक्ष को ईर्ष्या हो आई। ऐसे व्यक्ति कभी भी शिवजी जैसी स्वरूपसिद्ध आत्माओं के पद तक ऊपर नहीं उठ सकते; इसलिए वे सदैव ईर्ष्यालु रहते हैं। यहाँ पर दिया गया उदाहरण उपयुक्त है। असुर, राक्षस अथवा नास्तिक भगवान् से सदैव द्वेष रखते हैं, वे उन्हें मार डालना चाहते हैं। इस युग में भी कुछ ऐसे तथाकथित विद्वान् हैं, जो कृष्ण से ईर्ष्या करने के कारण भगवद्गीता पर टीका टिप्पणी करते हैं। जब कृष्ण यह कहते हैं—मन्मना भव मद्भक्त: (भगवद्गीता १८.६५)—सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो और मेरी शरण में आओ—तो ये तथाकथित विद्वान् कहते हैं कि हमें जिसकी शरण में जाना है, वह कृष्ण नहीं। यह ईर्ष्या नहीं तो क्या है? असुर अथवा नास्तिक जन बिना किसी कारण के भगवान् से ईर्ष्या करते हैं। इसी प्रकार वे मूर्ख, जो आत्म-साक्षात्कार के सर्वोच्च पद तक नहीं पहुँच पाते, अकारण ही स्वरूपसिद्ध पुरुषों को सम्मान प्रदान करने के बजाय उनसे ईर्ष्या करते हैं।

 
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