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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  4.3.22 
प्रत्युद्गमप्रश्रयणाभिवादनं
विधीयते साधु मिथ: सुमध्यमे ।
प्राज्ञै: परस्मै पुरुषाय चेतसा
गुहाशयायैव न देहमानिने ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
प्रत्युद्गम—अपने आसन पर खड़े होना; प्रश्रयण—स्वागत करना; अभिवादनम्—नमस्कार; विधीयते—किये जाते हैं; साधु— उचित; मिथ:—पारस्परिक; सु-मध्यमे—हे मेरी प्रिये; प्राज्ञै:—बुद्धिमान द्वारा; परस्मै—परमेश्वर को; पुरुषाय—परमात्मा को; चेतसा—बुद्धि से; गुहा-शयाय—शरीर के भीतर बैठकर; एव—निश्चय ही; —नहीं; देह-मानिने—देह रूप पुरुष को ।.
 
अनुवाद
 
 हे तरुणी भार्ये, निस्सन्देह, मित्र तथा स्वजन खड़े होकर एक दूसरे का स्वागत और नमस्कार करके परस्पर अभिवादन करते हैं। किन्तु जो दिव्य पद पर ऊपर उठ चुके हैं, वे प्रबुद्ध होने के कारण ऐसा सम्मान प्रत्येक शरीर में वास करने वाले परमात्मा का ही करते हैं, देहाभिमानी पुरुष का नहीं।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह तर्क भी दिया जा सकती है कि शिवजी के श्वसुर होने के कारण दक्ष का सम्मान करना शिवजी का धर्म था। इसके उत्तर में यही कहना है कि जब कोई विद्वान् पुरुष सत्कार हेतु खड़ा होता है या नमस्कार करता है, तो वह हर एक के हृदय में आसीन परमात्मा को नमस्कार करता है। अत: यह देखा जाता है कि वैष्णवों में यदि शिष्य तक अपने गुरु को नमस्कार करता है, तो बदले में गुरु तुरन्त नमस्कार करता है, क्योंकि यह नमस्कार शरीर को नहीं वरन् परमात्मा को किया जाता है। फलत: गुरु भी शिष्य के शरीर में स्थित परमात्मा को नमस्कार करता है। श्रीमद्भागवत में भगवान् कहते हैं कि उनको सम्मान प्रदान करने की अपेक्षा उनके भक्त को सम्मान देना अधिक मूल्यवान है। भक्त अपने को शरीर करके नहीं मानते, अत: किसी भी वैष्णव को प्रणाम करने का अर्थ है विष्णु को प्रणाम करना। यह भी कहा जाता है कि शिष्टाचार के नाते ज्योंही कोई वैष्णव दिखे उसे तुरन्त नमस्कार किया जाय, जिससे यह सूचित हो कि उसके भीतर परमात्मा स्थित है। वैष्णव शरीर को विष्णु का मन्दिर मानता है। चूँकि शिवजी कृष्णचेतना में परमात्मा को पहले ही नमस्कार कर चुके थे, अत: दक्ष को, जो अपने को शरीर रूप में मान रहा था, पहले ही नमस्कार अर्पित हो चुका था। उसके शरीर को नमस्कार अर्पित करने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि किसी भी वैदिक आदेश में ऐसा निर्दिष्ट नहीं है।
 
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