जीवात्मा स्वाभाविक रूप से शुद्ध है। असङ्गो ह्ययं पुरुष:। वेदों में कहा गया है कि आत्मा सदैव शुद्ध और भौतिक आसक्ति से अदूषित रहता है। आत्मा के साथ देह की पहचान करना अज्ञान के कारण है। ज्योंही कोई पूरी तरह से कृष्णभावना भावित हो जाता है, तो यह समझना चाहिए कि वह शुद्ध मूल स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया है। यह स्थिति शुद्ध-सत्त्व कहलाती है। चूँकि यह शुद्ध सत्त्व स्थिति अन्तरंगा शक्ति के प्रत्यक्ष वश में है, अत: इस स्थिति में सारे सांसारिक कार्य रुक जाते हैं। उदाहरणार्थ, जब लोहे को अग्नि में रखा जाता है, तो वह गर्म होता है और जब लाल हो जाता है, तो यह लोहा होकर भी अग्नि के समान कार्य करता है। इसी प्रकार जब ताँबे में से बिजली प्रवाहित होती है, तो वह ताँबे की भाँति कार्य नहीं करता, वह बिजली की भाँति कर्म करता है। भगवद्गीता (१४.२६) में भी पुष्टि हुई है कि जो भगवान् की अमिश्रित भक्ति करता है, वह तुरन्त ही शुद्ध ब्रह्म पद को प्राप्त होता है।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
अत: जैसाकि इस श्लोक में कहा गया है, शुद्ध सत्त्व दिव्य पद है, जो पारिभाषिक रूप में वसुदेव कहलाता है। वसुदेव एक पुरुष का भी नाम है, जिससे कृष्ण प्रकट हुए। यह श्लोक बताता है कि शुद्ध स्थिति वसुदेव कहलाती है, क्योंकि उस स्थिति में भगवान् वासुदेव बिना किसी दुराव के अनुभव किये जाते हैं। अत: अमिश्रित भक्ति करने के लिए सकाम कर्म या मानसिक कल्पना द्वारा किसी प्रकार के भौतिक लाभ की इच्छा किये बिना भक्ति के नियमों का पालन करना चाहिए।
शुद्ध भक्ति में मनुष्य अकारण तथा बिना किसी रुकावट के अपना कर्तव्य मान कर भगवान् की मात्र सेवा करता रहता है। यही शुद्ध सत्त्व या वासुदेव कहलाता है, क्योंकि इस अवस्था में भक्त के हृदय में परम पुरुष कृष्ण का उदय होता है। श्रील जीव गोस्वामी ने अपने भगवत्-सन्दर्भ में इस वासुदेव अथवा शुद्ध सत्त्व का अत्यन्त मनोहारी वर्णन किया है। वे बताते हैं कि गुरु के नाम के आगे अष्टोत्तर-शत (१०८) जोड़ दिया जाता है, जो वह सूचित करता है कि वह शुद्ध सत्त्व या वसुदेव की दिव्य स्थिति में है। वासुदेव शब्द का प्रयोग अन्य प्रकार से भी होता है। उदाहरणार्थ, वासुदेव का अर्थ सर्वव्यापी भी है। सूर्य भी वासुदेव-शब्दितम् कहलाता है। भले ही वासुदेव को विभिन्न अर्थों में क्यों न प्रयुक्त करें, किन्तु वासुदेव का अर्थ सर्वव्यापी या अन्तर्यामी भगवान् है। भगवद्गीता (७.१९) में भी कहा गया है—वासुदेव: सर्वम् इति। वास्तविक अनुभूति तो भगवान् वासुदेव को समझना और उनकी शरण में जाना है। वसुदेव वह भावभूमि है, जिस पर श्रीभगवान् वासुदेव का बोध होता है। जब मनुष्य भौतिक प्रकृति के कल्मष से रहित होता है और शुद्ध कृष्णचेतना अथवा वसुदेव अर्थात् वासुदेव पद में स्थित होता है, तो भगवान् वासुदेव का बोध होता है। यह कैवल्य पद कहलाता है, जिसका अर्थ है “शुद्ध चेतना।” ज्ञानं सात्त्विकं कैवल्यम्। जब मनुष्य शुद्ध दिव्य ज्ञान को प्राप्त होता है, तो वह कैवल्य पद पर स्थित होता है। अत: वसुदेव का अर्थ कैवल्य भी होता है, जिस का व्यवहार सामान्य रूप से निर्विशेषवादी करते हैं। निर्गुण कैवल्य साक्षात्कार (अनुभूति) की अतिन्म अवस्था नहीं है। अकृष्णचेतना कैवल्य में जब कोई भगवान् को समझ लेता है, तो वह सफल हो जाता है। उस शुद्ध अवस्था में श्रवण, कीर्तन, स्मरण इत्यादि के द्वारा कृष्णविज्ञान का विकास होने से मनुष्य भगवान् को समझ सकता है। ये सारे कार्य परमेश्वर की अन्तरंगा शक्ति के निर्देशन में होते हैं।
इस श्लोक में अन्तरंगा शक्ति के कार्य का वर्णन भी अपावृत: अर्थात् किसी आवरण से रहित रूप में किया गया है। चूँकि भगवान्, उनका नाम, रूप, गुण, सामग्री इत्यादि दिव्य होने के कारण भौतिक प्रकृति से परे हैं, अत: भौतिक इन्द्रियों के द्वारा इनमें से किसी एक को भी समझ पाना सम्भव नहीं है। जब इन्द्रियाँ शुद्ध भक्ति करने से पवित्र हो जाती हैं (हृषीकेण हृषीकेशसेवनं भक्तिरुच्यते) तो शुद्ध इन्द्रियाँ श्रीकृष्ण को बिना आवरण के देख सकती हैं। अब कोई यह प्रश्न करे कि चूंकि भक्त के वस्तुत: वही भौतिक देह होती है, तो वही भौतिक नेत्र किस प्रकार भक्ति से पवित्र हो सकते हैं? भगवान् चैतन्य ने जो उदाहरण दिया है, वह है कि भक्ति से मन का दर्पण निर्मल हो जाता है। स्वच्छ दर्पण में मुख को स्पष्ट देखा जा सकता है। इसी प्रकार केवल मन के दर्पण को स्वच्छ कर लेने से भगवान् की स्पष्ट अनुभूति हो सकती है। भगवद्गीता (८.८) में कहा गया है—अभ्यासयोगयुक्तेन। निर्दिष्ट कर्तव्यों को भक्ति में करते हुए चेतसा नान्यगामिना या ईश्वर के विषय में केवल सुन कर तथा उनका कीर्तन करके यदि किसी का मन निरन्तर श्रवण तथा कीर्तन में लगा रहे और अन्यत्र कहीं न जाए, तो मनुष्य को भगवान् का साक्षात्कार हो सकता है। जैसी कि भगवान् चैतन्य ने पुष्टि की है, भक्तियोग प्रक्रिया द्वारा श्रवण तथा कीर्तन से प्रारम्भ करके मनुष्य अपने मन तथा हृदय को स्वच्छ बना सकता है और इस तरह वह भगवान् के मुख का स्पष्ट दर्शन पा सकता है।
शिवजी ने बताया कि चूँकि उनके हृदय तथा मन के अन्दर परमेश्वर सदैव विद्यमान रहते हैं, अत: उनका हृदय सदैव वासुदेव की भावना से पूरित रहता है और वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को सदैव नमस्कार करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि शिव सदैव समाधि में रहते हैं। यह समाधि भक्त के वश की बात नहीं, यह तो वासुदेव के वश में है क्योंकि भगवान् की समस्त अंतरंगा शक्ति उन्हीं के आदेश से कार्यशील होती है। वस्तुत:, भौतिक शक्ति भी उन्हीं के आदेश से कार्यशील है, किन्तु उनकी प्रत्यक्ष इच्छा तो आत्मिक शक्ति द्वारा पूरी होती है। अत: अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे स्वयं प्रकट होते हैं। भगवद्गीता (४.६) में कहा गया है—सम्भवाम्यात्ममायया। आत्ममायया का अर्थ “अन्तरंगा शक्ति” है। अपने भक्त की दिव्य प्रेमाभक्ति से प्रसन्न होकर वे अपनी इच्छा से अपनी अन्तरंगा शक्ति से प्रकट होते हैं। भक्त कभी आदेश नहीं देता कि मेरे भगवान् तुम यहाँ आओ जिससे मैं तुम्हारा दर्शन कर लूँ। भक्त को यह पद प्राप्त नहीं कि वह ईश्वर को आदेश दे सके कि मेरे सम्मुख आओ या नाचो। ऐसे अनेक तथाकथित भक्त हैं, जो ईश्वर को अपने समक्ष नाचते हुए आने के लिए बुलाते हैं। किन्तु ईश्वर किसी के द्वारा आदेशित नहीं होते। हाँ, यदि वे किसी के शुद्ध भक्तिमय कार्यकलापों से प्रसन्न हो जाते हैं, तो वे स्वत: प्रकट होते हैं। इसलिए इस श्लोक में अधोक्षज शब्द अत्यन्त सार्थक है, क्योंकि यह सूचित करता है कि हमारी भौतिक इन्द्रियों के कार्यों से ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो पाएगा। कोई अपनी मानसिक कल्पना के प्रयास से भगवान् का साक्षात्कार नहीं कर सकता, किन्तु यदि वह ऐसा करना चाहता है, तो उसे अपनी इन्द्रियों के सारे कार्यों को दमित करना पड़ेगा और तब भगवान् आत्मिक शक्ति को प्रकट करते हुए शुद्ध भक्त के समक्ष प्रकट होते हैं। तो जब भगवान् शुद्ध भक्त के समक्ष प्रकट होते है, तो भक्त के लिए उनको सादर नमस्कार करने के अतिरिक्त कोई अन्य कर्तव्य नहीं रह जाता। परम सत्य अपना रूप भक्त को दिखाते हैं। वे रूपहीन नहीं हैं। वासुदेव रूपहीन नहीं हैं, क्योंकि इस श्लोक में कहा गया है ज्योंही भगवान् प्रकट होते हैं भक्त उन्हें नमस्कार करता है। नमस्कार व्यक्ति को किया जाता है, किसी निराकार वस्तु को नहीं। मनुष्य को यह मायावादी व्याख्या स्वीकार नहीं करनी चाहिए कि वासुदेव निर्विशेष या निराकार हैं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है—प्रपद्यते अर्थात् मनुष्य समर्पण करता है। समर्पण सदैव व्यक्ति के प्रति किया जाता है किसी निर्विशेष को नहीं। जब समर्पण या नमस्कार करने का प्रश्न आता है, तो समर्पण या नमस्कार का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिए।