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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  4.3.25 
यदि व्रजिष्यस्यतिहाय मद्वचो
भद्रं भवत्या न ततो भविष्यति ।
सम्भावितस्य स्वजनात्पराभवो
यदा स सद्यो मरणाय कल्पते ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
यदि—यदि; व्रजिष्यसि—तुम जाओगी; अतिहाय—उपेक्षा करके; मत्-वच:—मेरे वचन; भद्रम्—कल्याण; भवत्या:— तुम्हारा; —नहीं; तत:—तब; भविष्यति—होगा; सम्भावितस्य—अत्यन्त सम्माननीय; स्वजनात्—अपने सम्बन्धियों द्वारा; पराभव:—अपमानित होते हैं; यदा—जब; स:—वह अपमान; सद्य:—तुरन्त; मरणाय—मृत्यु के; कल्पते—तुल्य है ।.
 
अनुवाद
 
 यदि इस शिक्षा के बावजूद मेरे वचनों की उपेक्षा करके तुम जाने का निश्चय करती हो तो तुम्हारे लिए भविष्य अच्छा नहीं होगा। तुम अत्यन्त सम्माननीय हो और जब तुम स्वजन द्वारा अपमानित होगी तो यह अपमान तुरन्त ही मृत्यु के तुल्य हो जाएगा।
 
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत “श्रीशिव तथा सती का संवाद” नामक तीसरे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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