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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  4.3.3 
इष्ट्वा स वाजपेयेन ब्रह्मिष्ठानभिभूय च ।
बृहस्पतिसवं नाम समारेभे क्रतूत्तमम् ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
इष्ट्वा—सम्पन्न करके; स:—वह (दक्ष); वाजपेयेन—वाजपेय यज्ञ से; ब्रह्मिष्ठान्—शिव तथा उनके अनुयायियों को; अभिभूय—उपेक्षा करके; —तथा; बृहस्पति-सवम्—बृहस्पति-सव; नाम—नामक; समारेभे—प्रारम्भ किया; क्रतु- उत्तमम्—यज्ञों में श्रेष्ठ ।.
 
अनुवाद
 
 दक्ष ने वाजपेय नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और उसे अत्यधिक विश्वास था कि ब्रह्माजी का समर्थन तो प्राप्त होगा ही। तब उसने एक अन्य महान् यज्ञ किया जिसे बृहस्पति-सव कहते हैं।
 
तात्पर्य
 वेदों में संस्तुति की गई है कि बृहस्पति-सव नामक यज्ञ करने के पूर्व वाजपेय यज्ञ सम्पन्न होना चाहिए। किन्तु दक्ष ने इन यज्ञों को करते समय शिव जैसे महान् भक्तों की उपेक्षा की। वैदिक शास्त्रों के अनुसार देवता यज्ञ में सम्मिलित होने तथा आहुति में भाग लेने के अधिकारी हैं, किन्तु दक्ष उनकी उपेक्षा करना चाह रहा था। सभी यज्ञों का अभीष्ठ भगवान् विष्णु को तुष्ट करना होता है, किन्तु विष्णु में उनके सभी भक्त आ जाते हैं। ब्रह्मा, शिव तथा अन्य देवता भगवान् विष्णु के आज्ञाकारी दास हैं, अत: इनके बिना विष्णु कभी सन्तुष्ट नहीं होते। किन्तु दक्ष को अपने पद का घमंड हो गया था, अत: वह ब्रह्मा तथा शिव को इस यज्ञ से यह सोचकर वंचित रखना चाह रहा था कि यदि कोई विष्णु को प्रसन्न कर ले तो फिर उनके अनुयायियों को प्रसन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु विधान ऐसा नहीं है। विष्णु चाहते हैं कि पहले उनके अनुयायी तुष्ट हों। भगवान् कृष्ण ने कहा है मद्भक्तपूजाभ्यधिका—मेरे भक्तों की पूजा मेरी पूजा से श्रेष्ठ है। इसी प्रकार से शिवपुराण में कहा गया है कि पूजा की सर्वश्रेष्ठ विधि विष्णु को आहुति प्रदान करना है, किन्तु इससे भी श्रेष्ठ है कृष्ण के भक्तों की पूजा करना। इस प्रकार यज्ञों में शिव की उपेक्षा करना समुचित न था।
 
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